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शनिवार, 8 दिसंबर 2012

अर्धांगिनी

बचपन में मास्टर जी ने कहा - मूर्ख। जानता है मूर्ख किसे कहते है। और संटी हाथों पर जड़कर चलते बने। ये फ्लैशबैक के दिन थे। फिर बचपन खत्म हुआ और हम कॉलेज में पहुँच एकाएक जवान हो गये। असल कहानी यहाँ शुरु हुई..

हमारे पास सिवाय मान जाने के कोई चारा नहीं था। हम सब दोस्त(एक के अलावा) आखिरकार मान गये। हमने अपने दिल को समझाया और अपनी राह को एक खूबसूरत मोड़ दे दिया। पर हम परेशां थे कि ये सारे मोड़ उसी मंज़िल की ओर फिर फिर क्यों बढ़ जाते हैं जिसे हम छोड़ना चाहते है। फिर हमने तय किया कि हम इन मोड़ों को भी अपनी राहों से हटा देंगे। हालांकि हम ऐसा कर नहीं सकते थे फिर भी हमने पूरी कोशिश की। हमने भरसक कोशिश की कि हम उसे भुला दें। पर वो हमारे जहन में एक बुरे सपने की तरह हावी थी। हम उन दिनों को कोसने लगे जब हमने उसे एक सुंदर, सुशील सभ्य मानने की गुस्ताखी की थी। हमारे आने वाले दस साल इस गुस्ताखी की सजा बने। ह
मने सजा पूरी ईमानदारी से भोगी। आज सन २०१२ में जब हमारा एक दोस्त डिप्टी सुपरिटेंडेंट है हमने जानना चाहा कि हमारी गलती क्या थी? उसने फिलॉसफी झाड़ते हुए कहा गलत युग में गलत न होना भी एक गलती है। अरे ये क्या बात हुई। हाँ टोटल ईमानदारी भी अपने आप में एक बेईमानी है। ये वही दोस्त है जो एक समय हम सबमें सबसे ज्यादा निकम्मा माना जाता था। जिसके बारे में हमें लगता था कि ये तो गया इसका क्या होगा। न पढ़ता है न पढ़ने देता है। हम किताबों में डूबे रहते ये शहर की खाक़ झानता, लोगो से बतियाना इसका प्रिय शगल था। २००५ के बाद से हमारी मुलाकात नहीं हुई थी हमने भी ध्यान नहीं दिया सोचा होगा साला कहीं। फिर पिछले साल मिला हमारी गुस्ताखी को अपनी अर्धांगिनी बनाये हुए। उस दिन हमें मूर्खता की परिभाषा मालूम हुई।

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