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सोमवार, 10 दिसंबर 2012

थोडा सा सुकून


दौड़ते- भागते न जाने कितनी कहानियाँ हमसे टकराती हैं। कुछ हमें हवा की तरह हलके से छूकर निकल जाती हैं तो कुछ हमारी आँखों के फ्रेम में तस्वीर की तरह जम जातीं हैं और कुछ हमारे बगल में हमारे साथ कुछ ऐसे चिपक कर बैठ जाती हैं जैसे वो न जाने कबसे हमें ढूंढ रहीं थीं और आज जबकि हम उन्हें मिले हैं तो उन्हें कुछ वक्त के लिए ही सही पर थोडा सा सुकून तो मिला है।
सुकून!! बड़ा ही अजीब किस्म का शब्द है। पता नहीं कितने ही रंग की मिट्टियों में दबा रहता है ये शब्द। ज़रा सी हवा चली नहीं कि कागज़ के पुर्जे की तरह कहीं भी पहुँच जाता है। बिना किसी की इजाज़त के किसी की गोद में छुप जाता है तो किसी की उँगलियों के पोरों में गम हो जाता है। किसी की मुस्कराहट में, किसी की आँखों में तो किसी के कंधे पर ही चिपक जाता है और कभी कभी किसी के अन्दर हवा की तरह ऐसे घुल जाता है कि क्या कहें।
उस दिन मेट्रो में सफ़र करते वक्त ये सुकून नाम का पुर्जा मेरे अन्दर न जाने कब घुल गया था मुझे इसका अंदाज़ा तब हुआ जब मेरा खाली दिमाग मेट्रो की तुलना एक अलग ही संस्कृति को समेटे पैसेंजर ट्रेन से कर रहा था जिसमे कितने ही छोटी छोटी दुकानदारियाँ समेंटे कभी कोई चने वाला चढ़ता है तो कभी दालमोठ वाला, कभी अदरक, मिर्ची या मूली लिए कोई बूढी अम्मा नज़र आती हैं तो कभी खिलोने या ऐसी ही कोई चीज़ बेचने आये कोई बूढ़े अंकल। मैं सोच रही थी कि मैं मेट्रो की जगह पैसेंजर ट्रेन में सफ़र कर रही होती तो मेरा दिमाग घर की रसोई की तरफ नहीं दौड़ रहा होता ट्रेन में ही मेरे खाली पेट का चटपटा निवारण हो गया होता। मेरा दिमाग इन्हीं ख्यालों में था कि अचानक एक आवाज़ ने मेरा ध्यान खींचा। मेरे बगल में अधेड़ उम्र की एक महिला खडी थीं। जो कुछ तेज़ आवाज़ में अपनी बगल वाली महिला से कह रहीं थीं कि मेट्रो में भी बैठने के लिए जगह नहीं मिलती है। चाहे कितना ही क्यों न थके हो खड़े होकर ही जाना पड़ता है। मुझे उनकी बातें अन्दर तक भेद रहीं थीं क्योंकि मुझे लग रहा था की कायदे से मुझे उनके लिए सीट खाली कर देनी चाहिए पर 55 मिनट के लगातार तीन लेक्चेर्स के बाद मेरे अन्दर केवल इतना ही दम रह गया था कि में या तो मम्मी का लंच ले जाने का आग्रह ठुकराए जाने पर पछताऊँ या फिर मेट्रो की तुलना पैसेंजर ट्रेन से करके खयाली पुलाव पकाऊ। मन तो कह रहा था कि उठ जाना चाहिए पर शरीर मना कर रहा था। पर शायद भगवान ने मेरी सुन ली थी क्योंकि मन और शरीर की इसी कशमकश को विराम देते हुए अचानक मेरे बगल वाली सीट खाली हो गई और वो महिला मेरे बगल में आकर बैठ गईं . आह !! मैंने सुकून की सांस ली। अपने अन्दर घुले सुकून का मुझे हल्का सा एहसास हुआ। तभी मुझे लगा कि उन्हें कुछ दिक्कत हो रही है इसलिए मैंने उनसे पूछा कि- आप ठीक से तो हैं न, कोई दिक्कत तो नहीं?
मेरी बात सुनकर जैसे उनके चेहरे पर चमक आ गई और वो बोलीं- हाँ बेटा मैं ठीक हूँ। बहुत दूर से आ रही थी बहुत थक गई थी। पर क्या करूँ थकान ही जिंदगी है। उनकी बात सुनकर मैंने एक संवेदनापूर्ण मुस्कराहट के साथ सहमति व्यक्त की। दरअसल मुझे समझ ही नहीं आया था कि उनकी इस बात पर क्या कहूं। पर शायद उन्हें पता था कि उन्हें मुझसे क्या कहना है। बातों ही बातों में उन्होंने मुझे अपनी पूरी कहानी सुना दी कि कैसे 47 वर्ष की जिंदगी में उन्होंने जीवन में कितने दुःख उठाये। जब लगा कि बेटे से सुख मिलेगा तो वो भी अपनी पत्नी के साथ दूसरे शहर चला गया और रह गईं वो और उनके पति जो आपस में जैसे-तैसे कर के अपने सुख-दुःख बाँट लेते है। इतने में उनका ध्यान बगल में आकर खड़ी हुई एक लड़की पर गया जिसने अनारकली ढंग का सूट पहना हुआ था। उसे देखकर वो बोलीं- आजकल ऐसे सूट बहुत चल रहे हैं। तुम बच्चों पर ही अच्छे लगते हैं, जिसपर मैंने कहा कि आप पर भी ऐसा सूट बहुत अच्छा लगेगा। मेरी बात सुनकर वो फिर गंभीर हो गईं और बोलीं- भगवान् तुझे हमेशा सुखी रखे बेटा पर न तो अब शौक करने की मेरी उमर है और न ही तेरे अंकल के पास इतना पैसा। जैसे-तैसे कर के हम जिंदगी गुज़ार रहे हैं। सुख की चाह में 47 बरस बिता दिए पर केवल दुःख मिला, कहते-कहते वो सुबक पड़ीं। तब मैंने उनका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा कि आंटी अब तक आपकी जिंदगी में जो हुआ, या जो दुःख आये उसे तो नहीं बदला जा सकता पर इतना विश्वास मानिए कि अब आपकी जिंदगी में इतनी खुशियाँ आएँगी कि आप पिछला सब कुछ भूल जाएँगी। मेरी बात सुनकर वो उत्सुकता से बोलीं तू सच कह रही है बेटा?
मेने कहा- हाँ में बिलकुल सच कह रही हूँ। मैं कोई ज्योतिषी या भविष्य वक्ता तो नहीं पर पता नहीं मैंने कैसे इतने विश्वास के साथ उनसे यह कह दिया था। मन ही मन भगवन से प्रार्थना भी की थी कि प्लीज़ मेरी बात मान लेना। इसके बाद मैंने उठते हुए कहा कि मेरा स्टॉप आ गया है मुझे जाना होगा। पर मेरी बात आप ज़रूर याद रखना।
वो जैसे ये मान कर बैठी थीं कि मैं उनके साथ कुछ और दूर तक जाऊंगी, मेरी बात सुनकर हैरानी से बोली- बस तू यहाँ तक ही है मेरे साथ।
उनकी बात का जवाब देने का समय नहीं था मेरे पास वरना शायद मैं उनसे कहती कि यहाँ तो जिंदगी का नहीं पता कि कौन कितना साथ निभाएगा फिर ये तो मेट्रो है जहाँ कहानियां अपने सजीव पात्रो के साथ अजनबियों में सुकून तलाशती हैं जैसे एक कहानी ने मुझमे अपना थोडा सा सुकून तलाशा।

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

अर्धांगिनी

बचपन में मास्टर जी ने कहा - मूर्ख। जानता है मूर्ख किसे कहते है। और संटी हाथों पर जड़कर चलते बने। ये फ्लैशबैक के दिन थे। फिर बचपन खत्म हुआ और हम कॉलेज में पहुँच एकाएक जवान हो गये। असल कहानी यहाँ शुरु हुई..

हमारे पास सिवाय मान जाने के कोई चारा नहीं था। हम सब दोस्त(एक के अलावा) आखिरकार मान गये। हमने अपने दिल को समझाया और अपनी राह को एक खूबसूरत मोड़ दे दिया। पर हम परेशां थे कि ये सारे मोड़ उसी मंज़िल की ओर फिर फिर क्यों बढ़ जाते हैं जिसे हम छोड़ना चाहते है। फिर हमने तय किया कि हम इन मोड़ों को भी अपनी राहों से हटा देंगे। हालांकि हम ऐसा कर नहीं सकते थे फिर भी हमने पूरी कोशिश की। हमने भरसक कोशिश की कि हम उसे भुला दें। पर वो हमारे जहन में एक बुरे सपने की तरह हावी थी। हम उन दिनों को कोसने लगे जब हमने उसे एक सुंदर, सुशील सभ्य मानने की गुस्ताखी की थी। हमारे आने वाले दस साल इस गुस्ताखी की सजा बने। ह
मने सजा पूरी ईमानदारी से भोगी। आज सन २०१२ में जब हमारा एक दोस्त डिप्टी सुपरिटेंडेंट है हमने जानना चाहा कि हमारी गलती क्या थी? उसने फिलॉसफी झाड़ते हुए कहा गलत युग में गलत न होना भी एक गलती है। अरे ये क्या बात हुई। हाँ टोटल ईमानदारी भी अपने आप में एक बेईमानी है। ये वही दोस्त है जो एक समय हम सबमें सबसे ज्यादा निकम्मा माना जाता था। जिसके बारे में हमें लगता था कि ये तो गया इसका क्या होगा। न पढ़ता है न पढ़ने देता है। हम किताबों में डूबे रहते ये शहर की खाक़ झानता, लोगो से बतियाना इसका प्रिय शगल था। २००५ के बाद से हमारी मुलाकात नहीं हुई थी हमने भी ध्यान नहीं दिया सोचा होगा साला कहीं। फिर पिछले साल मिला हमारी गुस्ताखी को अपनी अर्धांगिनी बनाये हुए। उस दिन हमें मूर्खता की परिभाषा मालूम हुई।

ह्यूमिडिटी


वो दिन रोज की तरह नहीं था। उस दिन हवाओं में कुछ ज्यादा ही नमी थी। ऐसा मैंने अपने बचपन में भी महसूस किया था। उस दिन भी विश्वस्त सूत्रों के मुताबिक मौसम समाचारों में शहर में ह्यूमिडिटी की बहुतायत बताई गई थी लेकिन एकाएक शहर में ये ह्यूमिडिटी, ये आद्रता कैसे बढ़ गई इसका जवाब उनके पास भी नहीं था। वे सोच में मग्न थे कि हम इसका कयास तक कैसे नहीं लगा सके? चीज़े एकदम से बदल गई थी कुछ लोग दुखी थे लेकिन चेहरे पर सुख का लबादा चिपकाये थे बहुत सारे लोग खुश थे लेकिन चेहरे को दुखनुमा बनाये थे। कुछ लोग और थे जो न तो खुश थे न दुखी। वे खुश और दुखी दिखने के चुनाव में फँसे हुए थे। सन् १९९२ के बाद से हर बार दिसंबर की ये सर्द सुबह ऐसे ही नमी लिए आती है। इस नमी की तारीखें अब दिनों दिन बढ़ने लगीं है साथ ही तीसरे दर्जे के कुछ लोगों की तादात भी दिनोंदिन बढ़ रही है। कुछ लोगों के लिए ये तारीख़ एक वाकया है। कुछ के लिए एक घटना-परिघटना-दुर्घटना। तो कुछ के लिए किसी महापुरुष का परिनिर्माण दिवस। मेरे लिए ये दिन मेरे बचपन के साथी अफसाना और फिरोज़ की विदाई का दिन है। क्योंकि इसी दिन की दोपहर के बाद उनके पिता ने एक हिंदु बहुल इलाके को छोड़ने का फैसला लिया।