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बुधवार, 29 अगस्त 2012

बा॰ल॰क॰= बाल लघु कथा


बा॰ल॰क॰= बाल लघु कथा
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चल उठ। नाश्ता कर। बाल सँवार। वर्दी पहन। स्कूल जा। सबसे अच्छे नंबर ला। बड़ा आदमी ( डॉक्टर, इंजीनियर , आई ए एस आदि ) बन। राजा बेटा। सो जा।

चल उठ। कर ले नाश्ता। भाई को कराया? तू भी चली जा न स्कूल वैसे ... । कुछ सीख उससे । खाना बना। बर्तन माँज। चल सो भी जा अब। टी वी देखेंगी रानी साहिबा !!!

Dil, Dosti, etc in बारिश


अरे नीर,तुम अचानक ? फोन पर बताया नहीं कि तुम आ रहे हो ? और तुम तो बुरी तरह भीग गए..जींस से इतना पानी टपक रहा है..रुको मैं अभी तुम्हारे लिए कपड़े लेकर आती हूं..लेकिन तुम्हें तो मेरे कपड़े आएंगे नहीं..आइडिया ! खादी का कुर्ता-पायजामा.आ जाएगा तुम्हें..अभी लाती हूं..नीलिमा कपड़े लाने दूसरे कमरे चल देती है..जब तक कपड़े लेकर वापस आती तब तक नीर अपना काम कर चुका था. ये क्या पागलपंथी है नीर ? तुमने मेरी पोल्का डॉटवाली लोअर पहन ली और ये टीशर्ट. टीशर्ट पहनते वक्त पढ़ा भी तुमने कि इस पर क्या लिखा है ? पागल तो नहीं हो. इसे पहनकर मेट्रो से वापस अपने घर जाओगे? लोग हंसेंगे नहीं कि ये कौन लड़का है जो स्कीनी पोल्का डॉट लोअर में, लड़की के कपड़े में घूम रहा है. अरे नहीं, कुछ नहीं कहेंगे. किसकी मजाल है कि मुझे कोई कुछ कह दे. फिर कह भी दिया तो कह दूंगा- लड़की के कपड़े नहीं 
पहने हैं मिस्टर, इसी बहाने एक चुटकी नीलिमा को अपने साथ लेकर घूम रहा हूं और अगर लड़कियों ने ठहाके लगाए या एटीट्यूड में स्माइल पास की तो जोर से कहूंगा- जलन होती है देखकर ? तेरे उन घोंचू, बकरे सी दाढ़ी रखनेवाले से तो अच्छी ही दिख रहा हूं. और पढ़ लिया क्या लिखा है- इट्स माइ शो.वैसे एक बात कहूं, तुम्हें इस तरह की चीजें लिखी टीशर्ट नहीं पहननी चाहिए..इट्स माइ शो..आखिर तुम खुद अपने को मेल चावइज्म की कॉमडिटी बताती हो.
..बस-बस रहने दो. अब नुक्कड नाटक की रिहर्सल यही मत करने लगो. लेकिन तुम्हें पता है ये लोअर और टीशर्ट मैं पहले दो बार पहन चुकी हूं और धोने के लिए इसे खूंटी पर टांग रखी थी. नीर बिना कुछ बोले ड्रेसिंग टेबल की तरफ बढ़ता है और स्पिंज को इतनी जोर से दबाता है कि एक बूंद भी डियो उसके भीतर न रहे..लो अब तो कोई नहीं कहेगा न कि एक तो लड़की के कपड़े पहन लिए और उपर से इतने गंदे की स्मेल आ रही है. अरे पागल, ये तो उससे भी ज्यादा नौटंकी हो गई..कपड़े के साथ-साथ डियो भी लड़की की ? आखिर तू चाहता क्या है, रुक जाता दो मिनट तो क्या बिगड़ जाता ? मैं तो कुर्ता पायजामा ला रही थी न ? कुछ भी तो नहीं. बस ये कि मैं इस इलाके से गुजर रहा था तो इतनी तेज बारिश होने लगी कि मुझे समझ नहीं आया कि क्या करुं? पिछले दो घंटे से भीग रहा था. मन में आया कि कुछ कामचलाउ कपड़े लेकर किसी रेस्तरां के वाशरुम जाकर बदल लूं लेकिन फिर तुम्हारा ध्यान आया कि अरे नीलिमा भी तो इधर ही रहती है,वहीं चलते हैं. यकीन मानो, जब तुम्हारे यहां चलने का मन बनाया तो दिमाग में ये बात बिल्कुल नहीं थी कि अगर तुम्हारा ब्ऑयफ्रैंड होगा तो इसे किस तरह से लेगा? मेरे दिमाग में ये भी नहीं आया कि अगर तुम्हारी खूसट मकान मालकिन ने दूसरे कपड़े में बाहर निकलते देख लिया तो क्या सोचेगी ? मैं तो बस ये सोच रहा था कि निखिल की कोई न कोई टीशर्ट और लोअर तो होगी ही, पहन लूंगा..कौन पैसे फसाए..नहीं तो तुम्हारी ही जिंदाबाद. मुझे तुम्हारे लड़की होने के पहले दोस्त होने का ख्याल आया और मैं बस चला आया. एनीवे,मैं ये तुम्हारे कपड़े लौटा दूंगा या फिर उस बारिश और मौके का इंतजार करुंगा जब तुम फोन करके कहोगा- यार नीर ! मेरे कपड़े होंगे न तेरे पास..देख न आज मैं इधर जंगपुरा आयी थी और बारिश में बुरी तरह फंस गई.( बरसाती लप्रेक विद दिल,दोस्ती, एटसेट्रा)

एक दृश्य जिंदगी


बगल में रखे सुन्न से मोबाइल फोन पर उसने एक सरसरी सी निगाह डाली और अपनी आँखें भींचकर चेहरा दूसरी तरफ ऐसे घुमा लिया जैसे घर के अंदर घुसने को आतुर अपने किसी बेहद अन्तरंग के मुंह पर अनायास ही दरवाज़ा पटककर सहज होने की बेहद नाकाम सी कोशिश की जाए. इसी कोशिश के तहत उसने अपनी निगाह खिड़की से बाहर बिल्डिंगों से तराशे गए आकाश पर टिका दी जहाँ कितने ही बेचैन परिंदे इधर से उधर न जाने किस फ़िक्र में भटक रहे थे. उसकी निगाहें देर तक उन परिंदों की फ़िक्र के साथ कुछ तलाशने का बहाना करती रहीं और फिर न चाहते हुए भी वापस मुर्दा हो चुके मोबाइल पर आकर टिक गईं.नज़र टिक जाती है मगर ख़याल नहीं टिकते. अदृश्य परिंदों की तरह जिंदगी से तराशे गए दिमागी आसमान में न जाने किस फ़िक्र में चक्कर लगाते रहते हैं, इधर से उधर और हासिल कुछ भी नहीं. वही बदहवासी, वही फिक्रमंदी और वही बेवजह की उड़ान इधर से उधर. शायद यही जिंदगी है. मोबाइल पर टिकी निगाह ने जैसे एक पूरी उम्र का फलसफा पेश कर दिया था उसके सामने. एक पूरी उम्र जो उसने इन दो वर्षों में बिताई थी एक चित्रपट के समान आँखों के सामने से गुज़र गई.
पहली बार जब वो कुसुम से मिला था. कितना अजीब सा था वो मिलना. पूरी तरह से उन्रोमंटिक. पर आज वही सब कुछ कितना ख़ास और कितना अलग लगता है.लगता तो ऐसा भी है कि काश जिंदगी को rewind किया जा सकता तो वो अपनी टिकी हुई निगाह की तरह थाम लेता वक्त के उस टुकड़े को और जिंदगी वहीं ठहर जाती न कोई बदहवास और फिक्रमंद उड़ान होती न ही कुछ और तलाशने और पाने की इच्छा..
उसे याद आता है मस्तिष्क पर खिंचता उसकी खूबसूरत सी उस नई जिंदगी के चित्रपट का वो पहला दृश्य जिसका दिन और तारीख तो उसे याद नहीं पर इतना ज़रूर याद है कि ऑफिस में 'उसका' वो पहला दिन था. खूबसूरत हरे रंग की साड़ी में कितनी खिल रही थी वो ये उसने नहीं देखा था क्यूंकि वो एक निर्लिप्त और वीतरागी व्यक्ति के समान अखबार पढ़ रहा था. उसका ध्यान कुसुम की तरफ तब गया था जब वो अचानक उसके बगल में आकर बैठी और उसकी साड़ी के पल्लू का किनारा उसके हाथ पर आ गिरा. उसे याद है कि किस तरह उसने गुस्से में एक झटके से उसके पल्लू को वापस उसकी और उछाल दिया था और तब कुसुम ने कहा था ओह आई एम सो सॉरी. उसने तभी उसकी और नज़र घुमाकर देखा था. उस वक्त उसकी सहमी हुई सी आँखें देखकर उसे पहली बार एहसास हुआ कि जैसे उसका निर्लिप्त और वीतरागी ह्रदय किसी अदृश्य राग में रम गया है. बस यहीं से हो गई थी शायद एक नई जिंदगी की शुरुआत.
नई जिंदगी... कितने कमाल की बात है कि एक उम्र की इस जिंदगी में टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी न जाने कितनी जिंदगियां बसती हैं. छोटी-बड़ी जिंदगी, रंगीन तो कभी बदरंगी जिंदगी, धूप सी उजली रौशन जिंदगी तो कभी स्याह काली जिंदगी. और भी न जाने कितनी अनगिनत जिंदगियां. रोज़ जीती और दम तोडती जिंदगियां. इन्हीं ज़िन्दगियों में इन्सान गुज़रता रहता है. एक जिंदगी से दूसरी जिंदगी में गोता लगाता रहता है और इसी बीच अपने दिल से अपने हाथ में थामी हुई उसकी अपनी जिंदगी कब उसके हाथ से फिसल जाती है उसे खुद पता नहीं चलता...
दृश्य ख़त्म हुआ नहीं कि विचारों की एक बेवजह की उठापटक शुरू. शरद इसी झुंझलाहट में जोर से अपना हाथ मेज पर पटक देता है, पर इससे क्या होता है. सवाल तो सवाल हैं उठेंगे ही. बे सर-पैर के सवाल जिनका जवाब पाने की न तो खुद उसकी तरफ से कोई कोशिश है और न ही कोई इच्छा. पर जवाब मिले न मिले सवाल तो उठेंगे ही, उठ ही रहे हैं. कोई बेगाना पूंछे तो और बात है पर यहाँ तो अपना दिमाग पीछा नहीं छोड़ता. फ़िज़ूल के सवालों की रस्साकशी आखिर पटक ही देती हैं उसे उस भंवर में जहाँ वो सोचने लग जाता है कि आखिर कुसुम में ऐसा क्या था जिसने उसकी जिंदगी को अचानक ही एक नई जिंदगी से नवाज़ दिया था. शायद उसकी सादगी, उसका भोलापन, उसके चेहरे पर खिली हुई मुस्कराहट या फिर खुद उसके अपने मन के खालीपन को भरने की एक अनवरत तलाश जो एक अनजानी सी चाह में कुसुम के आस-पास सिमट आई थी. या कुछ और... पता नहीं. एक बार फिर वह सवालों के पुलिंदे को उठा कर जैसे खिड़की से बाहर फेंक देता है इस एक जवाब के साथ कि कुसुम में कुछ ऐसा था जिसने एक उम्र से सोये पड़े उसके बचपन को मासूम सी अंगडाई के साथ जगा दिया था.
और इसके साथ ही फिर एक दृश्य शुरू जिसमे उसकी आँख एक नई सुबह में खुलती है. जिंदगी वाकई कितनी बदल सी गई थी इस दृश्य में. रोज़ ही की तरह सूरज का निकलना, पक्षियों का चहचहाना. ऑफिस निकलने की भाग दौड़, वही खाना, वही पीना वही सोना. सब कुछ वही पहले जैसा ही तो था लेकिन उस सब में एक नए किस्म का बदलाव आ गया था. जिसके बारे में वो खुद बहुत हैरान था.
दृश्य आगे बढ़ता है जहाँ वो खुद को कुसुम के ख्यालों में कहीं गुम पाता है..... शायद कुसुम भी ऐसा ही कुछ महसूस करती रही होगी. शायद जैसा बदलाव उसकी जिंदगी में आया है वैसा ही बदलाव उसकी जिंदगी में भी आया हो और शायद वह भी उसके बारे में ऐसा ही कुछ सोचती होगी जैसा कि वह. और इसी उधेड़बुन में अनगिनत सुबह, शाम और रातों का गुज़र जाना और इसके साथ ही वक्त का सूखे पत्ते की तरह झुर्र हो जाना. और इसके साथ ही जिंदगी का अचानक सिकुड़ सा जाना....
इसी दृश्य में उसे याद आता है कि बिल्कुल पहली मीटिंग की तरह पूरी तरह से फ़िज़ूल और अनरोमेंटिक अंदाज़ में उन दोनों का रोज़ ऑफिस में मिलना. उसकी रोज़ हैलो से आगे बढ़कर कुछ कहने की नाकाम कोशिश करना और आखिर एक बेतुकी सी मुस्कान के साथ संवाद की प्रक्रिया का शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाना. खूबसूरत जिंदगी के अनगिनत टुकड़ों को समेटे आखिर ये दृश्य एक उजाले के साथ ढल जाता है. एक ऐसा उजाला जिसने बंद कमरे में चुपचाप बैठे शरद की आँखों में एक नई चमक भर दी. गुनगुनी धूप से भरा यह दृश्य जैसे एक पूरी जिंदगी नहीं बल्कि न जाने कितनी जिंदगियों की चमक को अपने समेटे हुए था. और फिर इसी उजले दृश्य के साथ स्मृतियों के अदृश्य चित्रपटल पर एक और दृश्य उभर आता है. उसे याद आता है वो वाक्य जो उसने शर्माजी की रिटायरमेंट पार्टी के वक्त चुपके से कुसुम से कहा था और जिसने उसकी जिंदगी को एक और खूबसूरत सी जिंदगी से नवाज़ दिया था. उसे याद आता है कि कैसे उसने बहुत हिम्मत जुटाकर कांपती सी आवाज़ में कुसुम से कहा था कि "मैं अपनी पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ गुजारना चाहता हूँ इसमें तुम्हें कोई ऐतराज़ तो नहीं". उसे यह भी याद आता है कि किस तरह उसका दिल बहुत ज़ोरों से धड़क रहा था और उसे लग रहा था कि कुसुम के साथ उसका वह मुस्कराहट का रिश्ता, जिसने उसकी कोमा में पड़ी हुई जिंदगी को अचानक जिंदगी से नवाज़ दिया था, वो उसके इस कदम से शायद अब ख़त्म हो जाएगा. कुसुम शायद उससे अब हैलो भी नहीं करेगी. और हैलो तो क्या उसकी तरफ देखेगी भी नहीं और अगर ऐसा हुआ तो.. तो..वो जियेगा कैसे....उसकी जिंदगी फिर किसी अँधेरी खोह में गुल हो जायेगी......नहीईई..पर ऐसा हुआ नहीं. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसका उसे डर था. उसे याद आता है कि कैसे उसकी बात सुनकर कुसुम ने आश्चर्य से उसकी ऑर देखा था ऑर मुस्कुराकर कहा था नहीं. मुझे कोई ऐतराज़ नहीं.
स्मृतियाँ क्या कमाल की चीज़ होती हैं. अतीत को ऐसे सजीव बना देती हैं जैसे आज, अभी, बिल्कुल हाल की ही बात हो शरद की अदृश्य पटल पर टिकी दृष्टि से टपकी हुई एक बूँद मुस्कान इसका प्रमाण थी जो उसके चेहरे पर अचानक से चमक उठी थी.
आह उस वक्त उसे ऐसा लगा था जैसे एक ही छलांग में वो आकाश के सारे सितारे तोड लेगा. कितना ख़ास था वह दिन. उसके चहरे की ख़ुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. उसकी और कुसुम की चुपचाप सी, खूबसूरत सी जिंदगी में संवादों का एक नया अध्याय जो जुड़ गया था. जिंदगी की फिर से एक नई शुरुआत हो गई थी. जिंदगी में से निकलती एक सतरंगी. एक इन्द्रधनुषी किर्णीली जिंदगी जिसके हर स्पर्श में हर रंग में वह खो जाना चाहता था.
चित्रपट की रील एक बार फिर घिर्र से घूम जाती है और इस बार एक साथ कई सारे दृश्य दृष्टि के फ्रेम में फिट हो जाते हैं. सुबह से शाम शाम से रात रात से अगली सुबह तक के ऐसे अनगिनत दृश्य और यूँ ही लगातार...
वो छोटा सा दृश्य जिसमें मोबाइल के की-पैड पर थिरकती उसकी उँगलियाँ कुसुम और उसके मन के राग का अनुगमन कर रही थीं, अचानक सबसे बड़ा हो जाता है सारे दृश्य उस छोटे से दृश्य के पीछे छिप जाते हैं, धुंधले पड़ जाते हैं. और वह देखता है कि किस प्रकार उसके और कुसुम के होठों पर एक मुस्कराहट खिली है. कैसे दोनों ऐसी बातों पर भी हँस रहे हैं जिनके पीछे हंसी की कोई वजह ही नहीं. कैसे दोनों एक दूसरे का हाथ थामे घंटों पार्क में टहल रहे हैं. और इसी क्रम में वक्त बहा जा रहा है बहुत तेज़ी से. इतनी तेज़ी से कि वक्त की एक बूँद भी नहीं बाकी नहीं रह गई और दृश्य ख़त्म. बिना किसी पूर्व सूचना के दृश्य ख़त्म.
इस दृश्य की समाप्ति उसे जितना साल रही थी उतना ही शायद उस नए दृश्य की अनचाही उपस्थिति भी जिसमें वो सिसकता हुआ कैंसर हॉस्पिटल में खुद को कुसुम के सिरहाने बैठा हुआ पाता है. उसके आंसू पानी की तरह बह रहे हैं. वह बच्चों की तरह बिलख रहा है और कुसुम अपने सिरिंज लगे हाथ से उसके आंसू पोंछ रही है.. और....और बहुत दूर तक घिसटता ये शब्दहीन दृश्य उस दृश्य में गुल हो जाता है जहाँ सुलगती एक तेज़ आग में उसका अपना मन भी राख हो गया था और उसके साथ ही उसकी एक दृश्य जिंदगी भी.