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बुधवार, 25 जुलाई 2012

इस बार खरगोश जीत गया  - मसऊद अख्तर 


 हर बार उसे अपने दादा पर बहुत गुस्सा आता था कि एक उनकी वजह से पूरी खरगोश जाति को अपमान और बदनामी का दाग़ झेलना पड़ा कि उनकी जिंदगी जिल्लत की जिंदगी बन कर रह गयी। उसने फैसला किया कि इस बार की दौड़ में वह हिस्सा लेगा और अपनी जाति पर से बदनामी के इस दाग़ को हमेशा के लिए साफ कर देगा। दादा अपने पोते के इस जज्बे को देखकर बहुत खुश हुए थे हालाँकि उनके जी के भीतर हार की बदनामी का वो दंश भी मौजूद था।
दौड़ शुरु हई। खरगोश ने कुलाँचैं भरी। ये जा..वो जा.. देखते ही देखते वो बहुत आगे निकल गया। उस पेड़ के पास जाकर जिधर उसके बाबा सो गये थे। वो वहाँ उसे हार के प्रतीक के रूप में याद करने लगा और रुक गया। उसके कई दोस्त वहाँ पहले ही आराम फरमा रहे थे वो पेड़ फलों से लदा पेड़ था। उसका भी दिल मसोस गया। अब हार का प्रतीक उसकी आँखो से धुमिल हो गया और उसकी जगह आराम परस्ती ने ले ली। उसने देखा कछुए का पीछे कहीं अता पता नहीं था। उस दिन बहुत गर्मी थी वह भी पेड़ के नीचे की घासों पर लेट गया। लेकिन इस बार उसने अपने दोस्तों को सचेत करते हुए आँखें मटकायीं। उसके दोस्त उसकी इस लड़ाई में एक साथ थे। कछुआ अकेला धीमे कदमों से पीछे आ रहा था। उसके पिता ने सिखाया था कि कर्म किये जा..फल की इच्छा मत कर।..चल अकेला चल अकेला जैसे गीत उसके पिता की जुबान पर थे। एक स्तर पर यह दौड खरगोश के दादा और कछुए के पिता के मध्य भी थी।
खरगोश सो चुका था। कछुआ उसके करीब से निकलते हुए पेड़ को पार कर गया। ये कछुआ शाकाहारी नहीं था इसलिए पेड़ के फल और ठंडी हवा उसे आकर्षित न कर सकी। उसके दोस्तों ने जब देखा की कछुआ फिर आगे निकल रहा है तो उसका रास्ता रोक लिया और उसे पकड़ कर उसी पेड़ से बाँध दियाजो पिछली दफ़ा कछुए की जीत का मुख्य किरदार बना था बाद में खरगोश की नींद खुली तो कछुए को बंधा पाया और अपने दोस्तों के साथ जी खोलकर हंसा और दौड को फिर से जारी किया और इस बार वो दौड जितने में सफल रहा।
(मसऊद अख्तर की कहानी का संपादित रूप) संपादक - तरुण

रविवार, 15 जुलाई 2012

एड हॉक इंटरव्यू

कमरे में घुसते ही एक अजीब सा सन्नाटा था। सामने बैठी मैडमें जिनके हाथ में एक एक पर्चा था आपस में खुसुरफुसुर में मगन थी। वह सकुचाती हुई भीतर घुसी। उसने सिर और आँखें नमस्ते के अंदाज़ में झुका दीं।
एड हॉक पैनल में नाम है तुम्हारा ? (उनमें से एक ने पूछा)
जी मैम। (उसने सहम कर जवाब दिया)

हाँ तो तुम्हारा पीएच.डी का काम किस विधा पर है।
मैम नैमिचंद्र जैन की रंग समीक्षा पर।

अच्छा तो बताओ भक्तिकाल के केंद्र में क्या है? (अब की बार कोने में बैठी उम्रदराज़ मैडम ने पर्चे पर नज़रे गड़ाते हुए पूछा)।
मैम भक्ति।
ओह।(मुँह बिचकाते हुए बराबर वाली मैडम ने यह भाव व्यक्त किया)

विपर्य किसे कहते है कहानी और उपन्यास में क्या अंतर है? (दूसरे कोने में बैठी मैडम ने तुरंत अगला सवाल दागा)
वह अपने बी.ए और एम.ए. के दिनों की स्मृतियों मे खो गई।

अगला सवाल पूछने के लिए दोनों किनारों की मैडमों ने बिल्कुल मध्य में बैठी मैडम की ओर देखा जो अपने मोबाइल पर नंबरों को रगड़ने में मगन थी।
ओह अच्छा ये बताओ भक्ति के ...( ये पूछ चुके है उनके बराबर में बैठी एक अन्य मैडम ने बीच में टोकते हुए कहा।)
ओह सॉरी हाँ तो आख्यानात्मक कविता और प्रगी...परगीता ...ये क्या लिखा है फोटोकॉपी वाले ने सही से प्रिंट नहीं किया।( प्रगीतात्मक। , एक अन्य मैडम ने कानों मे कहा) हाँ प्रगीतात्मक कविता किसे कहते है? (मैडम ने पर्चे को अजीब तरह से आँखों के करीब लाकर पूछा)
सॉरी मैम मुझे तो ये अवधारणा ही समझ नही आई। कविता तो कविता होती है उसे आख्यानात्मक और प्रगीतात्मक जैसे बोझिल शब्दों से जोड़ने की जरूरत ही क्या है?

ओह तो तुम क्लास में क्रांति करना चाहती हो। स्लैबस के खिलाफ बच्चों को खड़ा करना चाहती हो।
नहीं मैम मै तो। बस

नहीं नहीं बोलो
बाकि मैडमों ने ध्वनि मत में उस मैडम का साथ दिया।

अच्छा बताओं विरुद्धो का सामंजस्य किसकी रचना है?
उसे लगा कि उसका गला कोई दबा रहा है उसे उस कमरे में अजीब सी घुटन महसूस हुई। कमरे के सन्नाटे उसके कानों में चीखने लगे। उसने कानों पर दोनो हथेलियाँ कस लीं और उठने का प्रयास किया पर उसने पाया कि उसके नीचे पैर ही नहीं हैं।

शनिवार, 14 जुलाई 2012

... बदल गई हैं परिभाषाएँ - पूरन सिंह


  • पूरन सिंह ने हमें तकरीबन पाँच छः लघुकथाएँ मेल की थी इनमें एक को छोड़कर लगभग सभी दलित लघुकथाएँ थी। इससे पहले हमने आप के साथ उनकी लघुकथा 'भूत' साझा की थी अब उनकी एक और लघुकथा आपके सामने है। आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिए बहुत उपयोगी है सो उनमें कंजूसी न बरतें। लघुकथा समवाय एक खुला मंच है। यह सबके लिए खुला है। कृपया हमें अपनी लघुकथा मेल करें। मेल आई डी है -
    tarunguptadu@gmail.com
    shodharthidu@gmail.com
    Mob - 09013458181


    दिनेशा शुरू से ही बदमाश था। लेकिन वह कभी भी अपने अम्बेडकर नगर के लोगों से नहीं लड़ता-झगड़ता था। बड़ों को सम्मान देता और छोटों को प्यार।
    एक दिन कहीं से आ रहा था कि रास्ते में शक्तिपुरा के ठाकुर साहब ने उसे देखकर अपनी मूंछों पर तांव देना शुरू कर दिया था मानो कह रहे हो, कितने ही बड़े गुण्डे बन जाओ मेरा कुछ भी नहीं उखाड़ सकते।
    ठाकुर साहब को मूछों पर ताव देता देख दिनेशा बौखला गया था। बस दबोच लिया था ठाकुर साहब को उसने और उस्तरा से उनकी एक मूंछ काट ली थी। वह चाकू अपने साथ नहीं रखता था उस्तरा ही रखता था। उसका तर्क था चाकू से ज्यादा उस्तरा कारगर होता है। खैर जैसे ही ठाकुर साहब की मूंछ वाली बात शक्तिपुरा में पता लगी। आ गए ठाकुर अम्बेडकर नगर पर चढ़कर । दोनों तरफ से चलती गोलियां की आवाज से पूरा क्षेत्र थरथराने लगा था। बाद में पुलिस-थाना हुआ।
    अम्बेडकर नगर के सभी लोग अपने क्षेत्र से सुरक्षित सीट से जीते विधायक जी के पास पहुंच गए थे। सारी बात बतायी थी। विधायक जी गुर्राए थे, ‘‘दिनेशा और दिनेशा का साथ देने वाले आप सभी लोग दोषी हो। उल्टे काम करते हो फिर मेरे पास आते हो...............।’’
    अभी, विधायक जी बोल भी नहीं पाए थे कि दिनेशा धीरे से बोला था, ‘‘चचा, ये लोग तो हमेशा से ही उल्टे काम करते आए है उसका क्या................।
    ‘‘वे बड़े लोग हैं।’’ विधायक जी बोले थे।
    ‘‘नहीं...............अब परिभाषाएं बदल गई है।’’ राम रतन मास्टर जी ने दिनेशा की ओर लेते हुए कहा था और सभी अपने-अपने घरों को लौट आए थे। सभी ने दिनेशा का साथ दिया था। सुरक्षित सीट से जीते विधायक जी की बैठक, ठाकुरों और पुलिस के साथ चल रही थी।

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

लघु मेडिकल कथा (लमेक) - पंकज कुमार

ओह्ह्ह प्लीज़ मुझे नहीं लगवाना इंजेक्सन...प्लीज़ मेरी बात सुनो 
नहीं सिस्टर प्लीज़ मुझे tablet दे दो मै नहीं ले सकती इंजेक्सन
देखिये इशा मैडम अगर आप सुई नहीं लेंगी तो आपकी बीमारी ठीक नहीं हो पायेगी 
मुझे अपना काम करने दीजिये
उईइ माँ आह्ह्ह ओह्ह्ह...धीरे सिस्टर ओह्ह्ह
हो गया सिस्टर ?
हाँ आप रुई को दबा के रखिये
सामने वाले बेड पर बैठी एक 40 साल की महिला यह सब देख रही थी.
उसने पूछा की बेटी तुम क्या करती हो? और इतना क्यों घबराती हो दर्द से??
जिस तरह से हरेक दवाई की एक्सपायरी होती है ठीक उसी तरह से हमारे दुःख,तकलीफ और बीमारी
की भी एक्सपायरी होती है जिसका डेट हमें नहीं पता होता है..
इतने में सिस्टर उस महिला के पास आकर इन्जेक्सन लगाने के लिए हाथ से कपड़े हटाई
तो इशा फुट फुट कर रोना शुरू कर देती है क्योंकि इशा को उस महिला की बायीं छाती,
जिस पे उभार नहीं थे दिख जाती है..रोते रोते इशा ने पूछा तो पता चलता है की एक महीने पहले ही
ब्रेस्ट कैंसर की सर्जेरी हुई है और अब कुछ दिन के अंतराल पर हॉस्पिटल आना जाना होता है..

बुधवार, 11 जुलाई 2012

मियां कक्कन - विभा नायक

  • मियां कक्कन के बारे में बहुत सुना था. कस्बे के लोग बताते हैं कि किसी ज़माने में सूरज पश्चिम से निकलता था पर मियां कक्कन को ये गवारा न था कि सूरज पश्चिम से निकले आखिर उनकी माशुका का घर भी तो पश्चिम में ही पड़ता है. खुदा न खुआस्ता कभी सूरज और उनकी माशुका के नैन लड़ गए तो उनका क्या होगा. बैठे-बिठाये चप्पलें तोड़कर कमाई बदनामी बेकार न हो जायेगी. तो बस सूरज का रास्ता बदलवा दिया. कहने-सुनने वालों की तो बोलती ही बंद हो गई. मुंह खुला का खुला रह गया. ऊपर के दांत ऊपर और नीचे के दांत नीचे. सब इशारों-इशारों में एक दूसरे से पूछते कि लाहौल विला कुव्वत !! ये हुआ तो हुआ कैसे? न चूँ न चाएँ न ताली न धायँ ये गज़ब कैसे हो गया. पूरे क़स्बे में चुप्प सा हल्ला गुल्ला हो गया पर मियां कक्कन??.... मियां कक्कन ठहरे मियां कक्कन उन्हें कोई फरक नहीं पड़ा. फुसफुसाती कितनी ही हवाएं उनके कान के बगल से निकल जातीं पर मियां कक्कन उन हवाओं की बदगुमानी को नज़रंदाज़ करते हुए सुड़कदार अंदाज़ में चाय पीते और मूछों ही मूंछों में मुस्कराते. खुदा जाने कि उनकी इस बेपरवाही की राजदार ऐसी कौन सी बात थी जो उनकी मूंछों से निकलकर चाय की सुडकियों में तो गुल हो जाती पर बगल से गुजरने वाली हवा को भी उसका गुमां नहीं हो पाता.
    लोग कहते हैं कि अपनी ही दुनिया में मशगूल आज के मियां कक्कन जो इस छोटे से कसबे में झोपड़ी बनाकर रहते हैं, एक ज़माने में उनकी बात ही अलग थी. मथुरा के पास के ही किसी इलाके के खानदानी ज़मीदार थे हमारे मियां और ज़मींदार क्या पूरी नवाबी शान थी उनकी. बाप-दादों की बड़ी जायदाद के अकेले वारिस. ज़मीन-जायदाद, नौकर-चाकर, ऐशो-आराम और खानदानी इज्ज़त का नशीला रुतबा जो अब मियां की बस सतखिर्री मूंछों में ही चमकता है. न जाने कहाँ हवा हुआ. कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि मियां अपने ज़माने के बड़े दिलफेंक किस्म के आशिक थे. जहाँ भी नाज़नीन नज़रे-नगीच हुई नहीं कि मियां का दिल रुखसत और साथ ही दौलत भी. ऐशो-आराम भी. ज़मींदारी भी. शाम के वक्त चिलम का लम्बा कश भरते कुछ बुजुर्गों को यह भी कहते सुना है कि काके शाह मालिक उर्फ़ हमारे मियां कक्कन ज़मीदार तो थे पर जेहनी तौर पर एक बेहद भले और मासूम किस्म के इंसान भी थे. किसी दर्दमंद या ज़ईफ़ को देखा नहीं कि बस दौड़ पड़े उसकी मदद को. इनकी चौखट से कोई खाली हाथ नहीं जाता था. ब्याह भी हुआ था, बाल-बच्चे और सलीकेदार बेग़म क्या कुछ नहीं था इनकी गृहस्थी में पर नसीब का खेल कौन जानता है. मियां कक्कन एक खूबसूरत हूर की गिरफ्त में आ गए. अब हूरें इंसानों की तरह पांच तत्वों की पैदाइश तो होती नहीं हैं कि उनमें जज़्बात हों, बस क्या था अपने हुस्न का दीवाना बनाकर राख कर गई मियां कक्कन की जन्नत.
    क़स्बे की मिट्टी में रेत के जितने कण होंगे शायद उतनी ही अलग-अलग तरह की कहानियां मियां कक्कन को लेकर प्रचलित थीं. पर एक बात पर सबका यकीन था और वो ये कि साठे की उम्र पार करके भी मियां कक्कन बड़े पाठे हैं. दिल भी पूरी जवानी के साथ धड़कता है. तभी तो इस उम्र में भी इनकी एक खूबसूरत माशूका है. अब माशुका कौन है, कहाँ है, ये किसी को नहीं पता पर है ज़रूर और बेहद खूबसूरत है यह सबको पता है. भोला हलवाई जिसकी बनाई चाय को कुरान की आयत की तरह मियां अपने ज़ेहन में उतारते हैं, ने एक बार बताया था कि मियां की जेब में एक बार एक चूड़ी देखी गई थी. जेब से झांकती गोल गोल चूड़ी हो न हो इनकी माशूका की ही थी. भोला हलवाई की ही तरह दीनू महंत ने भी कक्कन मियां के कुरते की जेब से रंगीन रूमालों के झाँकने की बात कई बार बड़े गर्व से कुबुली थी. कसबे के आवारा लड़के भी बड़े चटकारे लेकर मियां कक्कन की मोहब्बत की ऐसी कई दास्ताने सुनातें हैं और कद्रदानों से वाहवाहियां बटोरते हैं पर एक बात जो हैरान करती है वो ये कि किसी की भी ज़ुबान या निगाहों में इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि वो मियां के सामने अपनी करामात दिखा सकें हालाँकि मियां कक्कन को इन दस्तानों से कोई फर्क नहीं पड़ता वो तो बस एक पक्के मुसलमान की तरह दिन में तीन बार भोला हलवाई की दुकान की चाय से गला तर्र करते हैं, दमड़ी थमाते हैं और निकल पड़ते हैं कसबे के पहाड़ी इलाके की तरफ किसी अज्ञात स्थान की ओर.
    ख़ैर कसबे के लोग भी आखिर कब तक अपने सवालों के जवाबों का इंतज़ार करते.इसलिए पहुँच गए मियां का पीछा करते-करते उसी अज्ञात स्थान पर जहाँ हमारे मियां कक्कन सर्दी-गर्मी, बरसात, आंधी, तूफ़ान की फ़िक्र किये बगैर जाया करते थे. पर ये क्या? खोदा पहाड़ निकली चुहिया भी नहीं! सोचा था कि........
    यहाँ तो खेल ही उल्टा पड़ गया क्या देखते हैं कि मियां कक्कन एक बहुत बड़ी हवेली के सामने के मैदान में करीब दर्ज़न भर बच्चों के साथ बच्चे बने हैं. उनके साथ दौड़ रहे हैं. उछल कूद रहे हैं. छोटी सी एक बच्ची तोतली ज़बान में कह रही है काका आप जो चूली लाये ते न तूलज बैय्या ने तोल दी. काका आप बैय्या ती पिट्टी पिट्टी लदाओ. और हमारे कक्कन मियां तुतला कर कह रहे थे, मुनिया तेले लिए ऑल चूली लाऊंगा. काका आज यहीं रुक जाओ न. ११-१२ साल की बच्ची ने काका का हाथ पकड़ते हुए कहा. इतने में बाकी बच्चे भी शोर मचाते हुए कहने लगे के काका रुक जाओ, काका रुक जाओ. पास कुछ लोग हाथ बांधे खड़े थे जिनमें से एक मियां के नज़दीक आकर बोला. साब आज बच्चों के साथ हवेली में ही रुक जाइए बच्चों की बड़ी इच्छा है. आप रुकेंगे तो आपकी ये हवेली भी धन्य हो जायेगी. पर मियां कक्कन सिर हिलाते हुए बोले- न सुखना न. अब हवेली बच्चों की है. अपनी तो बस वही झोपड़ी भली. अपनी माँ को सुखना वचन दिया था मैंने कि तेरी हवेली को खुशियों से भर दूंगा.तुझे पता है न सुखना कि मेरी माँ ने यशोदा बनकर मुझ जैसे बिन माँ-बाप की औलाद को अपनाया. जब माँ ने मुझे ये बताया तो दिल तो मेरा बहुत टूटा पर उस दिन मुझे घर का मतलब समझ आ गया. मैंने भी सोच लिया था कि अपनी शादी करके घर तो सभी बसाते हैं पर मैं अपने जैसे हर उस बच्चे को घर दूंगा जिसका अपना कोई नहीं है. . .....कहते-कहते कक्कन मियां अचानक रुक गए और बोले...क्या सुखना वही पुरानी बातें.. चल अब खेलने दे मुझे. अपने बच्चों के साथ.. कहते हुए कक्कन मियां ने अपने कुरते से अपनी पलके पोंछी और बच्चों के साथ फिर से मस्त हो गए.
    सुना है कि उसदिन दीनू महंत और भोला हलवाई जो कस्बे की ओर से मियां कक्कन का पीछा करते करते हवेली तक पहुंचे थे. कक्कन मियां और बच्चों के साथ रात की ब्यारी करके ही लौटे. पर दोनों की आँखों में ढेर भरे आंसू ज़रूर जमा थे. लोगों ने बहुत पूछा पर मुहं से कोई बात ही नहीं फूटी. शायद कक्कन मियां ने उन्हें कोई कई कसम दे दी थी. ख़ैर खुदा जाने क्या था पर कमाल की बात ये हुई कि भोला हलवाई ने पता नहीं क्यों कक्कन मियां से दमड़ी लेना बंद कर दिया और कक्कन मियां को अब वह काका कहने लगा है. और पक्के ब्राह्मणवादी दीनू महंत कक्कन मियां के पाँव छूने लगे हैं.इतना ही नहीं कसबे के आवारा लड़के जब कक्कन मियां को लेकर चटकारेदार बयानबाजियां करते हैं तो ये दोनों उन्हें अपनी अपनी बारी आँखों से बरज देते हैं और कई बार तो डांटकर या गालियाँ देकर भगा भी देते हैं. उधर मियां कक्कन पहले की ही तरह अपने में मस्त हैं लेकिन क़स्बा?? क़स्बा वाकई हैरान है.......

शनिवार, 7 जुलाई 2012

वैशाली अपनी नगरवधू का इंतज़ार नहीं करती - रवीश कुमार

  • लघुकथा समवाय के ब्लॉग पर रवीश कुमार की यह पहली लघुकथा है। जिसे वे लघु प्रेम कथा(लप्रेक) कहना ज्यादा पसंद करते हैं। जिसकी शुरुआत दरअसल फेसबुक पर ही पहले पहल हुई। अगर बहुत न माना जाए तो रवीश फेसबुक पर लप्रेक के संस्थापक हैं। जिनकी देखादेखी हम जैसों ने भी फेसबुक पर ही लघुकथा लिखने की कोशिश की, यह कोशिश ही वास्तव में  हमारे सामने इस ब्लॉग और लघुकथा समवाय के फेसबुक समूह के रूप में उपस्थित है। रवीश की यह लघुकथा हमें विनीत के सौजन्य से मिली, उन्होंने ही इसे फेसबुक के लघुकथा पेज पर चस्पा किया इसके लिए उनका साधुवाद। - तरुण (मॉडरेटर)
    सेक्टर फोर मार्केट का चौराहा तमाम झूठे वादों के उतरने चढ़ने का गवाह रहा है । हम भी एक दिन यहीं किसी होर्डिंग में टांग दिये जायेंगे । वैशाली अपनी नगरवधू का इंतज़ार नहीं करती । आम्रपाली नाम की इमारत बनाने वाले ने प्रॉपर्टी के सौदे में ख़ूब बनाए । नगरवधू अपने शहर को कंधे पे लादे उस वैशाली से इस वैशाली आ गई । वो अब कारपोरेशन के चुनाव में बब्बू सिंह की वधू बनकर वोट माँग रही है । और तुम क्या कर रहे हो ? मैं तो दर्ज कर रहा हूं । हमारे सपने ? नहीं जर्जर वैशाली को ।

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

खुरदरे इमोशन्स के बीच - विनीत कु्मार

  • ए रघु ! देख न मेरे ये जूते कैसे चमक गए. बिल्कुल नए जैसे. लग ही नहीं रहा ये चार साल पुराने जूते हैं. ऐम्बे लिक्विड तो सचमुच कमाल का है. अब मैं अपने सारे जूते इसी से धोया करुंगी. ओह रागिनी! तुमने इस सड़ियल से जूते पर इतनी मेहनत क्यों की ? तुमने तो इसे कब का छोड़ दिया था पहनना. फिर अब क्यों साफ कर दिया ? रघु,ये सड़ियल है. याद है, ये तुम्हारी पहली कमाई की निशानी है. उस दिन तुम्हें हिन्दी सेट्स बनाने के दस हजार रुपये मिले थे. मैं जॉगिंग के लिए कामचलाउ जूते लेना चाहती थी और कई बार तुम्हें मोनेस्ट्री जाने कहा था. तब तुम सेट्स पूरी होने के बाद जाने की बात करते थे और फिर जैसे ही पैसे आए, जबरदस्ती मुझे आदिदास के शोरुम ले गए थे और इसे खरीदा था. उस दिन तुम सचिन की तरह आदिदास की ब्रांडिंग कर रहे थे. पता है रघु. इसे मैं जब भी पहनती थी न, मेरी रफ्तार अपने आप बढ़ जाती थी. ह...ा हा. रफ्तार बढ़ जाती थी. रफ्तार तो इतनी बढ़ गई रागिनी कि देखते ही देखते तुम मुझसे मीलों दूर चली गई. रघु, तुमने कुछ कहा क्या ? नहीं रागिनी. मैंने कहां कुछ कहा. ओके. तो फिर आज शाम चलना न मेरे साथ. सोसाइटी के बार गेट पर जो भइया बैठते हैं न, उनसे इसके तलबे चिपकवा लेंगे. दस-बीस रुपये में अपना काम हो जाएगा.

    भइया, मेरे ये जूते चिपक जाएंगे ? हां मैंडमजी, चिपक क्यों नहीं जाएंगे ? तो फिर चिपका दो अच्छे से. रघु पास ही हाथ में जेब डालकर खड़ा हो गया था. रागिनी ने जल्द ही हाथ और जेब के बीच की खाली जगह में अपने हाथ डाल दिए थे. दोनों के बीच की हवा को रागिनी ने काफी कम कर दिया था. पब्लिक प्लेस में ऐसा करने से रघु अक्सर एम्बेरेस हो जाया करता है और रागिनी को ऐसा करने में मजा आता. ए रघु ! तुम मार्केट पर मेरे छूने भर से इतने शर्माने क्यों लग जाते हो ? ऐसे डरते हो कि जैसे मैं तुम्हारी रेप कर दूंगी. रागिनी ने इधर-उधर देखा और एक झटके में रघु को खींच लिया. ठीक से चिपकाना भइया जूते. ही ही ही ही. मैडमजी, ओइसही चिपकाएंगे, जैसे आप रघु भइया को. रागिनी, तुम भी न. एकदम से चीप हरकतें करने लग जाती हो.

    इ लीजिए मैडमजी. आपका जूता चिपककर रेड्डी. थैंक्स भइया. अच्छा ये तो बताओ, ये जूते फिर से उखड़ तो नहीं जाएंगे ? मैं तो इसे लेकर मोतिहारी चली जाउंगी और अगर उखड़ा तो फिर तुम तो आओगे नहीं मोतिहारी चिपकाने. मैडमजी. एगो बात पूछें ? आप जब इ जूता लिए थे हजार रुपया से उपर देकर तो सेल्समैने से इ पूछे थे कि एतना मंहगा जूता ले रहे हैं, उखड़ तो नहीं जाएगा? औ आप पन्द्रह ही रुपया में हमसे इ बात पूछ रहे हैं..रघु अंदर से खिसिया रहा था. रागिनी को इतनी बातें करने की जरुरत क्या थी ?...कोई बात नही्ं मैंडमजी, रघु भइया को बता दीजिएगा कि चिपका हुआ है कि मोतिहारी जाके उखड़ गया ? 

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

(लघु emotional कथा)


  • छोटू दो कप स्पेशल चाय देना ...
    अम्मा ये लो चाय पी लो ...
    ये मै रोज़ केशवपुरम के liabrary के बाहर कहते हुए सुनता..
    मेरा मन हुआ की आखिर कौन है जो रोज़ चाय पिलाती है अम्मा को वो भी library में?
    कुछ जानने और कुछ देखने की नियत से मै तेज़ी से बाहर निकला..देखा की एक अतिसुन्दर गोरी लड़की जो गुलाबी shirt और levis की जींस में बाहर बैठी चाय पी रही है दुसरे हाथ में पावरोटी और बुट्टर लिए..
    ...
    बोले जा रही थी की अम्मा तुम इतना काम मत किया करो..(बीच बीच में अम्मा के पसीने को पोछती) अम्मा भी साथ में पावरोटी और चाय पी रही थी...अम्मा के हाथ में कपड़े का एक मोटा gloves था.
    मै मन में अनेक प्रश्न लिए बापस अपनी सीट पे जाकर पढने लगा..आज सुबह मै library जल्दी गया उन प्रश्नों की खोज में की शायद मुझे कुछ पता चले..मैंने देखा की अम्मा सड़क पे मोटा gloves पहने झाड़ू लगा रही है..motorcycle पर बैठ कर मै सब देख रहा था..
    अचानक से मेरे कान में आवाज़ आई अम्मा ये लो चाय पी लो...

बुधवार, 4 जुलाई 2012

पब्लिक स्कूल कथा - आलोक झा


एक अध्यापिका नर्सरी कक्षा के बच्चों को पढ़ा रही थी । कोई तुमलोगों को कुछ पूछे और तुम्हें उसका उत्तर न मालूम हो तो तुम्हें कहना चाहिए ' सॉरी आई डु नोट नो' !
फिर उन्होंने डेमो के लिए राजू को खड़ा किया ।
अध्यापिका - भारत में गरीबों की संख्या कितनी है ?
राजू - सॉरी मैडम , आई डोन्ट नो !
अध्यापिका - राजू अभी तुम्हारे 'आई डोन्ट नो' बोलने का समय नहीं आया अभी तुम 'आई डु नोट नो' बोलो !

अब देखना है राजू के 'आई डोन्ट नो' बोलने का समय कब आता है !

सोमवार, 2 जुलाई 2012

भूत - पूरन सिंह


              बाबा बहुत मेहनत करते थे लेकिन जमींदार बेगार तो करवाता था, पैसे नहीं देता था। कभी-कभार दे दिए तो ठीक, नहीं तो नहीं। उन्हीं पैसों से किसी तरह गुजर होती थी।
       एक दिन दोपहर को मैंने मां से कहा, ‘‘बहुत भूख लगी है।’’
       मां कुछ नहीं बोली उसने मिट्टी के बरतन उलट कर दिखा दिए थे।
       मेरी भूख और तेज हो गई थी। भूख के तेज होते ही मस्तिष्क भी तेज हो गया था। पास ही श्मशान घाट था जहां बड़े .बडे लोग अपने बच्चों को भूत-प्रेत से बचाने के लिए नारियल, सूखा गोला पूरी-खीर कई बार मिष्ठान भी रख आते थे। यह सब काम दोपहर में होता था या फिर आधी रात को।
       मैं श्मशान घाट चल दिया था। संयोग से वहां खीर पूरी और सूखा गोला रखा था। गोले पर सिंदूर और रोली लगी थी। मैंने इधर-उधर देखा। कोई नहीं था। मैंने जल्दी-जल्दी आधी खीर पूरी खा ली थी और गोला झाड़ पोंछकर अपनी जेब में रख लिया। आधी खीर पूरी लेकर मैं घर आया था। मेरा चेहरा चमक रहा था।
       चमकते चेहरे को देखकर मां ने पूछा, ‘भूख से भी चेहरा चमकता है क्या। तू इतना खुश क्यों हैं?
       मैंने बची हुई आधी खीर-पूरी माँ के आगे कर दी थी। माँ  सब कुछ समझ गई थी। माँ की आंखें छलक गई थी और उसने मुझे अपने आँचल में छिपा लिया था मानो भूत से बचा रही हो कि उसके होंठ फड़फड़ाने लगे थे, ‘भूत, भूख से बड़ा थोड़े ही होता है।
       मैं कुछ नहीं समझा था। मैं मां के आंचल में और छिपता चला गया था।

रविवार, 1 जुलाई 2012

लघु कन्फ्यूजन कथा - पंकज कुमार

तुम खुद ही निम्बुज्ज़ सॉफ्टवेर डाउनलोड करके देख लो न मै झूठ नहीं बोल रहा पूजा. मै कल रात में ऑनलाइन नहीं था मेरा यकीन करो.
हाँ हाँ तुम सारे मर्द एक ही तरह के होते हो.सामने तो मीठी मीठी बात और पीठ पीछे लग गए दुसरे लड़कियों को रिझाने.
प्रतीक तुम ही बताओ की क्या एक लड़की के लिए ये ज्यादा जरुरी की वो अपने boyfriend को रात में ऑनलाइन रह कर chat करे तो प्यार बना रहेगा?
पूजा तुम बात को घुमा रही हो .तुम अगर मुझसे इतना ही प्यार करती हो तो कॉल कर सकती थी की इतनी रात को तुम कहाँ chat कर रहे हो? लडकों को blame करना बहुत आसान है पर क्या तुम कभी ये सोची हो की लड़के भी सच बोलते हैं?
देखो मै कुछ नहीं जानती मुझे ये बताओ की मै जब भी ऑनलाइन होती हूँ तो तुम्हारा status ऑनलाइन कैसे दिखाता है?
ओह्हो पूजा पूजा पूजा मै समझ गया की तुम्हें क्या confusion हुआ है.मुझे अपना सैमसंग वाला मोबाइल दो...
प्रतीक फुसफुसाते हुए मोबाइल में निम्बुज्ज़ सॉफ्टवेर डाउनलोड कर दिया..और अब पूजा का भी status ऑनलाइन दिखना शुरू हो गया..निम्बुज्ज़ सॉफ्टवेर ने एक प्यार को टूटने से बचा लिया...
फिर एक दिन... ओये पूजा ?पूजा? ओह्हो ये ऑनलाइन दिखा रहा है पर जवाब नहीं दे रही