हर बार उसे अपने दादा पर बहुत गुस्सा आता था कि एक उनकी वजह से पूरी खरगोश जाति को अपमान और बदनामी का दाग़ झेलना पड़ा कि उनकी जिंदगी जिल्लत की जिंदगी बन कर रह गयी। उसने फैसला किया कि इस बार की दौड़ में वह हिस्सा लेगा और अपनी जाति पर से
बदनामी के इस दाग़ को हमेशा के लिए साफ कर देगा। दादा अपने पोते के इस जज्बे को
देखकर बहुत खुश हुए थे हालाँकि उनके जी के भीतर हार की बदनामी का वो दंश भी मौजूद
था।
दौड़ शुरु हई। खरगोश ने कुलाँचैं भरी। ये जा..वो जा.. देखते ही देखते वो बहुत आगे निकल गया। उस पेड़ के पास जाकर जिधर उसके बाबा सो गये थे। वो वहाँ उसे हार के प्रतीक
के रूप में याद करने लगा और रुक गया। उसके कई दोस्त वहाँ पहले ही आराम फरमा रहे थे
वो पेड़ फलों से लदा पेड़ था। उसका भी दिल मसोस गया। अब हार का प्रतीक उसकी आँखो
से धुमिल हो गया और उसकी जगह आराम परस्ती ने ले ली।
उसने देखा कछुए का पीछे कहीं अता पता नहीं था। उस दिन बहुत गर्मी थी वह भी पेड़ के नीचे की घासों पर लेट गया। लेकिन इस बार उसने अपने दोस्तों को सचेत करते हुए आँखें मटकायीं। उसके दोस्त उसकी इस लड़ाई में एक साथ थे। कछुआ अकेला धीमे कदमों से
पीछे आ रहा था। उसके पिता ने सिखाया था कि कर्म किये जा..फल की इच्छा मत कर।..चल अकेला चल अकेला जैसे गीत उसके पिता की जुबान पर थे। एक
स्तर पर यह दौड खरगोश के दादा और कछुए के पिता के मध्य भी थी।
खरगोश
सो चुका था। कछुआ उसके करीब से निकलते हुए पेड़ को पार कर गया। ये कछुआ शाकाहारी
नहीं था इसलिए पेड़ के फल और ठंडी हवा उसे आकर्षित न कर सकी। उसके दोस्तों ने जब देखा की कछुआ फिर आगे निकल रहा है तो उसका रास्ता रोक लिया और उसे पकड़ कर उसी पेड़ से बाँध दिया. जो पिछली दफ़ा कछुए की जीत का मुख्य किरदार बना था बाद में खरगोश की नींद खुली तो कछुए को बंधा पाया और अपने दोस्तों के साथ जी खोलकर हंसा और दौड को फिर से जारी किया और इस बार वो दौड जितने में सफल रहा।
(मसऊद अख्तर की कहानी का संपादित रूप) संपादक - तरुण