मियां कक्कन के बारे में बहुत सुना था.
कस्बे के लोग बताते हैं कि किसी ज़माने में सूरज पश्चिम से निकलता था पर मियां कक्कन
को ये गवारा न था कि सूरज पश्चिम से निकले आखिर उनकी माशुका का घर भी तो पश्चिम में
ही पड़ता है. खुदा न खुआस्ता कभी सूरज और उनकी माशुका के नैन लड़ गए तो उनका क्या
होगा. बैठे-बिठाये चप्पलें तोड़कर कमाई बदनामी बेकार न हो जायेगी. तो बस सूरज का
रास्ता बदलवा दिया. कहने-सुनने वालों की तो बोलती ही बंद हो गई. मुंह खुला का खुला
रह गया. ऊपर के दांत ऊपर और नीचे के दांत नीचे. सब इशारों-इशारों में एक दूसरे से
पूछते कि लाहौल विला कुव्वत !! ये हुआ तो हुआ कैसे? न चूँ न चाएँ न ताली न धायँ ये
गज़ब कैसे हो गया. पूरे क़स्बे में चुप्प सा हल्ला गुल्ला हो गया पर मियां
कक्कन??.... मियां कक्कन ठहरे मियां कक्कन उन्हें कोई फरक नहीं पड़ा. फुसफुसाती
कितनी ही हवाएं उनके कान के बगल से निकल जातीं पर मियां कक्कन उन हवाओं की बदगुमानी
को नज़रंदाज़ करते हुए सुड़कदार अंदाज़ में चाय पीते और मूछों ही मूंछों में
मुस्कराते. खुदा जाने कि उनकी इस बेपरवाही की राजदार ऐसी कौन सी बात थी जो उनकी
मूंछों से निकलकर चाय की सुडकियों में तो गुल हो जाती पर बगल से गुजरने वाली हवा को
भी उसका गुमां नहीं हो पाता.
लोग कहते हैं कि अपनी ही दुनिया में मशगूल आज के
मियां कक्कन जो इस छोटे से कसबे में झोपड़ी बनाकर रहते हैं, एक ज़माने में उनकी बात
ही अलग थी. मथुरा के पास के ही किसी इलाके के खानदानी ज़मीदार थे हमारे मियां और
ज़मींदार क्या पूरी नवाबी शान थी उनकी. बाप-दादों की बड़ी जायदाद के अकेले वारिस.
ज़मीन-जायदाद, नौकर-चाकर, ऐशो-आराम और खानदानी इज्ज़त का नशीला रुतबा जो अब मियां
की बस सतखिर्री मूंछों में ही चमकता है. न जाने कहाँ हवा हुआ. कहने वाले तो यहाँ तक
कहते हैं कि मियां अपने ज़माने के बड़े दिलफेंक किस्म के आशिक थे. जहाँ भी नाज़नीन
नज़रे-नगीच हुई नहीं कि मियां का दिल रुखसत और साथ ही दौलत भी. ऐशो-आराम भी.
ज़मींदारी भी. शाम के वक्त चिलम का लम्बा कश भरते कुछ बुजुर्गों को यह भी कहते सुना
है कि काके शाह मालिक उर्फ़ हमारे मियां कक्कन ज़मीदार तो थे पर जेहनी तौर पर एक
बेहद भले और मासूम किस्म के इंसान भी थे. किसी दर्दमंद या ज़ईफ़ को देखा नहीं कि बस
दौड़ पड़े उसकी मदद को. इनकी चौखट से कोई खाली हाथ नहीं जाता था. ब्याह भी हुआ था,
बाल-बच्चे और सलीकेदार बेग़म क्या कुछ नहीं था इनकी गृहस्थी में पर नसीब का खेल कौन
जानता है. मियां कक्कन एक खूबसूरत हूर की गिरफ्त में आ गए. अब हूरें इंसानों की तरह
पांच तत्वों की पैदाइश तो होती नहीं हैं कि उनमें जज़्बात हों, बस क्या था अपने
हुस्न का दीवाना बनाकर राख कर गई मियां कक्कन की जन्नत.
क़स्बे की मिट्टी में
रेत के जितने कण होंगे शायद उतनी ही अलग-अलग तरह की कहानियां मियां कक्कन को लेकर
प्रचलित थीं. पर एक बात पर सबका यकीन था और वो ये कि साठे की उम्र पार करके भी
मियां कक्कन बड़े पाठे हैं. दिल भी पूरी जवानी के साथ धड़कता है. तभी तो इस उम्र
में भी इनकी एक खूबसूरत माशूका है. अब माशुका कौन है, कहाँ है, ये किसी को नहीं पता
पर है ज़रूर और बेहद खूबसूरत है यह सबको पता है. भोला हलवाई जिसकी बनाई चाय को
कुरान की आयत की तरह मियां अपने ज़ेहन में उतारते हैं, ने एक बार बताया था कि मियां
की जेब में एक बार एक चूड़ी देखी गई थी. जेब से झांकती गोल गोल चूड़ी हो न हो इनकी
माशूका की ही थी. भोला हलवाई की ही तरह दीनू महंत ने भी कक्कन मियां के कुरते की
जेब से रंगीन रूमालों के झाँकने की बात कई बार बड़े गर्व से कुबुली थी. कसबे के
आवारा लड़के भी बड़े चटकारे लेकर मियां कक्कन की मोहब्बत की ऐसी कई दास्ताने सुनातें
हैं और कद्रदानों से वाहवाहियां बटोरते हैं पर एक बात जो हैरान करती है वो ये कि
किसी की भी ज़ुबान या निगाहों में इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि वो मियां के सामने
अपनी करामात दिखा सकें हालाँकि मियां कक्कन को इन दस्तानों से कोई फर्क नहीं पड़ता
वो तो बस एक पक्के मुसलमान की तरह दिन में तीन बार भोला हलवाई की दुकान की चाय से
गला तर्र करते हैं, दमड़ी थमाते हैं और निकल पड़ते हैं कसबे के पहाड़ी इलाके की तरफ
किसी अज्ञात स्थान की ओर.
ख़ैर कसबे के लोग भी आखिर कब तक अपने सवालों के जवाबों
का इंतज़ार करते.इसलिए पहुँच गए मियां का पीछा करते-करते उसी अज्ञात स्थान पर जहाँ
हमारे मियां कक्कन सर्दी-गर्मी, बरसात, आंधी, तूफ़ान की फ़िक्र किये बगैर जाया करते
थे. पर ये क्या? खोदा पहाड़ निकली चुहिया भी नहीं! सोचा था कि........
यहाँ तो
खेल ही उल्टा पड़ गया क्या देखते हैं कि मियां कक्कन एक बहुत बड़ी हवेली के सामने के
मैदान में करीब दर्ज़न भर बच्चों के साथ बच्चे बने हैं. उनके साथ दौड़ रहे हैं. उछल
कूद रहे हैं. छोटी सी एक बच्ची तोतली ज़बान में कह रही है काका आप जो चूली लाये ते न
तूलज बैय्या ने तोल दी. काका आप बैय्या ती पिट्टी पिट्टी लदाओ. और हमारे कक्कन
मियां तुतला कर कह रहे थे, मुनिया तेले लिए ऑल चूली लाऊंगा. काका आज यहीं रुक जाओ
न. ११-१२ साल की बच्ची ने काका का हाथ पकड़ते हुए कहा. इतने में बाकी बच्चे भी शोर
मचाते हुए कहने लगे के काका रुक जाओ, काका रुक जाओ. पास कुछ लोग हाथ बांधे खड़े थे
जिनमें से एक मियां के नज़दीक आकर बोला. साब आज बच्चों के साथ हवेली में ही रुक जाइए
बच्चों की बड़ी इच्छा है. आप रुकेंगे तो आपकी ये हवेली भी धन्य हो जायेगी. पर मियां
कक्कन सिर हिलाते हुए बोले- न सुखना न. अब हवेली बच्चों की है. अपनी तो बस वही
झोपड़ी भली. अपनी माँ को सुखना वचन दिया था मैंने कि तेरी हवेली को खुशियों से भर
दूंगा.तुझे पता है न सुखना कि मेरी माँ ने यशोदा बनकर मुझ जैसे बिन माँ-बाप की औलाद
को अपनाया. जब माँ ने मुझे ये बताया तो दिल तो मेरा बहुत टूटा पर उस दिन मुझे घर का
मतलब समझ आ गया. मैंने भी सोच लिया था कि अपनी शादी करके घर तो सभी बसाते हैं पर
मैं अपने जैसे हर उस बच्चे को घर दूंगा जिसका अपना कोई नहीं है. . .....कहते-कहते
कक्कन मियां अचानक रुक गए और बोले...क्या सुखना वही पुरानी बातें.. चल अब खेलने दे
मुझे. अपने बच्चों के साथ.. कहते हुए कक्कन मियां ने अपने कुरते से अपनी पलके पोंछी
और बच्चों के साथ फिर से मस्त हो गए.
सुना है कि उसदिन दीनू महंत और भोला हलवाई
जो कस्बे की ओर से मियां कक्कन का पीछा करते करते हवेली तक पहुंचे थे. कक्कन मियां
और बच्चों के साथ रात की ब्यारी करके ही लौटे. पर दोनों की आँखों में ढेर भरे आंसू
ज़रूर जमा थे. लोगों ने बहुत पूछा पर मुहं से कोई बात ही नहीं फूटी. शायद कक्कन
मियां ने उन्हें कोई कई कसम दे दी थी. ख़ैर खुदा जाने क्या था पर कमाल की बात ये हुई
कि भोला हलवाई ने पता नहीं क्यों कक्कन मियां से दमड़ी लेना बंद कर दिया और कक्कन
मियां को अब वह काका कहने लगा है. और पक्के ब्राह्मणवादी दीनू महंत कक्कन मियां के
पाँव छूने लगे हैं.इतना ही नहीं कसबे के आवारा लड़के जब कक्कन मियां को लेकर
चटकारेदार बयानबाजियां करते हैं तो ये दोनों उन्हें अपनी अपनी बारी आँखों से बरज
देते हैं और कई बार तो डांटकर या गालियाँ देकर भगा भी देते हैं. उधर मियां कक्कन
पहले की ही तरह अपने में मस्त हैं लेकिन क़स्बा?? क़स्बा वाकई हैरान
है.......
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