महेंद्र प्रजापति(संपादक-समसामयिक सृजन) ने यह लघुकथा हमारे फेसबुक समूह पर चस्पा की थी जिसे आपके समक्ष इस ब्लॉग पर डाला जा रहा है। 'शरीरदान' पर लिखी यह 'लघुकथा' "पापा मैं जीना चाहती हूँ" 'साहित्य-अमृत' पत्रिका के 'जुलाई-२०११' अंक में प्रकाशित हुई थी.अभी इसका अनुवाद मराठी की एक पत्रिका 'स्त्री' में प्रकाशित हुआ जिसकी सूचना उन्हें कुछ दिन पूर्व ही मिली.अब वे इस पर १५-२० मिनट की एक 'शार्ट-फिल्म' बनाने की योजना बना रहा रहे हैं.आप भी इस लघुकथा को पढकर अपना सुझाव अथवा टिप्पणियाँ दें - मॉडरेटर
"क्या कहा डाक्टर ने? "-मिसेज शर्मा ने अपने पति को सवालिया नज़रों से देखते हुए पूछा.
शर्मा जी कुछ बोले नहीं सिर्फ फूट-फूट कर रोने लगे. आंसू पोछते हुए बोले- "सिर्फ १५-२० दिन का समय है हमारी बेटी के पास .ब्लड कैंसर अब उसे पूरी तरह जकड़ चुका है
"क्या" मिसेज शर्मा ने पति को फटी आँखों से देखा.
"हाँ ममता यही सच है.डाक्टर ने यही कहा है."-शर्मा जी पुन: बेजार होकर रोने लगे
"पापा"- बेटी ने अन्दर से आवाज दी.
"हाँ बेटी आया, बोलो ? "-शर्मा जी दौड़ कर बेटी के पास आ गए और उसका सर गोद में रखकर प्यार से सहलाने लगे जैसे आज सारा प्यार उस पर लुटा देना चाहते हों.मिसेज शर्मा तो बेटी के पास जाने की हिम्मत ही नहीं कर सकीं "
बेटी ने पिता को पहली बार इतनी पीड़ा में देखा था पूछ लिया-"क्या हुआ पापा ?"
कुछ तो नहीं बेटा आई एम फाइन"-अपने आंसुओ को पोछते हुए उन्होंने सबकुछ छुपाने की नाकाम कोशिश की.अपनी जागती आँखों से बेटी के डाक्टर बनने का सपना टूटते हुए देखकर अन्दर ही अन्दर घुट रहे थे.पर क्या करें ? वक़्त किसी का दोस्त और दुश्मन नहीं होता नियति ने उसको जिसके साथ जैसा वर्ताव करने का कार्य सौपा है वह पूरी इमानदारी और कुशलता से उसे निभाता है
बेटी ने सब समझ लिया था और पूछ लिया-"मेरे जीवन के कितने दिन शेष हैं पापा ?".शर्मा जी की जुबां हलक में जैसे अटक गयी लगा किसी ने उनका गला दबा दिया है.बेटी के इस सवाल के लिए वह बिलकुल भी तैयार नहीं थे.खुद को सँभालते हुए बोलने का प्रयास भी किये लेकिन बोल नहीं पाए.उनकी इसी ख़ामोशी ने बेटी के प्रश्न को और मजबूत कर दिया.जैसे कोई अचानक बहुत जरुरी काम याद आ गया हो बेचैन होकर बोली"-लेकिन पापा मैं तो जीना चाहती हूँ"- बेटी के इस शब्द ने शर्मा जी की ख़ामोशी को आंसुओं में बदल दिया.खुद के संभालने का नाटक ज्यादा देर कर नहीं पाए और पुन: फुटकर रोने लगे.कभी-कभी इन्सान को एक बार में ही इतनी पीड़ा का कष्ट उठाना पड़ता है कि,रोना उसे छोटा लगता है फिर भी आंसुओं का ज्वार पता नहीं कहाँ से उमड़ने लगता है.शर्मा जी उस समय उसी पीड़ा से गुजर रहे थे बेटी की जीने की इच्छा पर बोले-"बेटी मैं तो अपना सब-कुछ देकर खाली हाथ जाने को तैयार हूँ,बस तुमे कोई ठीक कर दे.चाहे मेरे जीवन भर की कमी ले ले.मेरे पास और कोई तरीका नहीं है बेटे.
"एक तरीका है पापा" , "एक तरीका है" - बेटी ने पिता को मुस्कुराते हुए देखकर कहा.
"क्या बेटी ? क्या ? जल्दी बताओ आंखे ख़ुशी से चमक उठी शर्मा जी की.आंसू नेपथ्य में हो गए.श्रीमती शर्मा जो दरवाजे के द्वार पे खड़ी थी वो भी आँखों में ख़ुशी लिए अन्दर आ गयीं.
"मेरे मृत्यु के बाद मेरा शरीरदान कर देना पापा" बेटी ने गर्व से कहा
"क्या कह रही हो ये? पागल हो गयी हो बेटी ?-शर्मा जी ने बेटी के इच्छा का तिरस्कार किया
"पागल भी कहीं ऐसी बाते करतें हैं पापा? बेटी ने फिर कोशिश किया
"हमारे धर्म में इसकी मान्यता नहीं है बेटी"-शर्मा जी धर्म का आश्रय लेकर विरोध किया लेकिन बेटी विचलित नहीं हुई.उसका संकल्प डिगा नहीं. वह खामोश नहीं हुई पुन: बोली-“हर धर्मं तो मानवता का संदेस देता है पापा.जो मज़हब इंसानियत न सिखाये उसे मानने से क्या फायदा ? फिर पापा, हमारा हिन्दू धर्म तो मानवीय संवेदना के लिए विश्व-विख्यात है.”
बेटी की बातों में विरोध नहीं बल्कि सुझाव का स्वर था.शर्मा जी थोडा झुके लेकिन धर्म का मोह नहीं छोड़ पाए.
यह कहना मुश्किल है कि, बेटी के शरीर दान करने का क्रन्तिकारी फैसला स्वीकार करने से उन्हें धर्म रोक रहा था या एक ऐसे पिता का दिल जिसने भूल से भी अपनी बेटी को थप्पड़ नहीं मारा हो तो उसका शरीरदान कैसे दे दें.उन्होंने एक बार यह कहकर बेटी को समझाने का फिर प्रयास किया- "बेटी जिस मानव का अंतिम-संस्कार सशरीर नहीं किया जाता उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलती" १८ वर्ष कि बेटी आज जैसे कोई दार्शनिक हो गयी थी.उसका एक-एक शब्द धर्म के भटकाव को सही रस्ते पे ला रहा था.उसने हार नहीं मानी पिता को पुन: समझकर बोलने लगी-"पापा आत्मा तो उनकी भटकती है जिनको ठिकाने नहीं मिलते.जरा सोचिये पापा, अगर मेरी आँखों से कोई देखेगा तो क्या मैं जिंदा नहीं रहूंगी? मेरा ह्रदय, जिसे आप जला कर मिटटी बनाना चाहते हैं, अगर वह किसी को नयी जिंदगी देगा तो क्या मैं जिंदा नहीं रहूंगी पापा ? मेरे शरीर के अलग-अलग अंग से अलग-अलग लोग नया जीवन पाएंगे तो क्या मैं उनमे जिंदा नहीं रहूंगी?
बोलते- बोलते बेटी अब माँ से मुखातिब हुई और बोली- " मम्मी पापा को समझाओ न जब इतने सारे लोग मेरे शरीरदान से नया जीवन पाएंगे तो और मुझे दुवायें देंगे तो क्या मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी ? " बेटी की बातें गीता-कुर्यान कि तरह सच थी.उसमे मानवता का संदेस था.शर्मा जी ने बेटी को गौर से देखा, जैसे बेटी के डाक्टर बनने का सपना पूरा हो गया.आखिर वह डाक्टर भी तो इसीलिए बनना चाहती थी न कि,
लोगों को नयी जिंदगी दे सके.हुलसकर शर्मा जी ने बेटी को गले से लगा लिया और फूट-फूट फिर रोने लगे लेकिन इस बार आंसू कष्ट,पीड़ा और बेबसी के नहीं थे बल्कि ख़ुशी,उत्साह और गर्व के थे.