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बुधवार, 30 मई 2012

अस्पताल में एक शाम


अभी पीछे मुड़ा ही था कि फिर वो आवाज़ दोबारा आई। अब एक बार फिर देख लो शायद नेटवर्क आ गया हो। एक बार तो लग ही जाएगा। आंटी बैल तो जा रही है पर कोई उठा नहीं रहा। एक बार और बेटा ये मेरी बहू का नम्बर हैं। पर आंटी कभी बैल जाती है तो कभी कोई फोन काट देता है मैं क्या करुँ। कितनी कॉल कर चुका हूँ लो अब आप ही कर लो। अच्छा बेटा गुस्सा मत हो ले ये नंबर मिला ये मेरे बेटे का हैं। वो ज़रूर उठाएगा उन्होंने बड़े उम्मीद भरे लहज़े में कहा और मैंने फिर मिला दिया मैं नंबर मिला रहा था और वो पेट पर हाथ रख कुछ बड़बड़ा रहीं थी। पता नहीं लेकिन उस बड़बड़ाने में दर्द का अहसास ज्यादा था। वो क्या था। नंबर लगा हाँ एक सैक लीजिये बात कीजिये। बेटा सुबह से फोन मिला रहीं हूँ बहू फोन नहीं उठा रही सब ठीक तो हैं न? मै हैरान ये क्या.. 
फिर उन्होंने कहा बेटा वो सुबह से तू भी नहीं आया सुबह नाश्ता देने भी कोई नहीं आया। इस लड़के ने अपने बिस्कुट अभी खिलाए हैं बड़ा भला लड़का है । बहुत भूख लग रही हैं। दवाई भी नहीं खा सकती न? वो बड़े दुख भऱे लहजे में अपने बेटे से गुजारिश जैसे किये जा रही थी और वहाँ से आवाज आनी बंद हो गयी। आंटी को लगा फोन कट गया। उन्होंने मेरे हाथ में मोबाइल पकड़ाया। मैंने पूछा आंटी कुछ ला दूँ आपको। पापा के लिए खिचड़ी लाया था आप भी ले लो ये तो बहुत सारी हैं पापा इतनी नहीं खाते। उन्होंने लेने के भाव में मना कर दिया में खिचड़ी वहाँ रखके बराबर वाले बैड पर पापा के पैरों के पास बैठ गया। अब आंटी के हाथ पेट पर नहीं थे। बल्कि आँखों को पोंछ रहे थे। 
मैं पापा के पास बैठा नौ साल पहले के फ्लैश बैक में गुम हो गया इसी अस्पताल में जब मेरी माँ इस सरकारी अस्पताल में थी। मैंने जिंदगी का एक बहुत बड़ा ज्ञान पाया था कि आदमी को गरीबी नहीं मारती बल्कि गरीबी में बीमारी मारती हैं।

शनिवार, 26 मई 2012

शार्क और नौकरशाह


यह लघुकथा आलोक झा के फेसबुक स्टेटस से यहाँ चस्पा की गई है। आलोक की फेसबुक वॉल पर की गई टिप्पणियों को पढ़ते हुए दिल में कुछ मचल सा जाता हैं। कुछ हैं जो उनकी टिप्पणियो में परोक्ष होकर भी प्रत्यक्षतः हमें दिखाई देता हैं। मैंने जब ये कथा पढ़ी तो मुझे शुरुआत में यह पंचतंत्र सरीखी लगी। आलोक इस लघुकथा में(मुझे पूरी उम्मीद है उन्होंने यह लघुकथा जान कर नहीं ही लिखी होगी) जिन संदर्भों पर टिप्पणी करतें हैं वो आज की लघुकथा के बेहद मौजूँ संदर्भ हैं।शार्षक आलोक ने क्योंकि नहीं दे ऱखा था था तो मुझे जैसा समझ आया मैंने दे दिया। अगर इसमें कोई ग़ुस्ताखी मानी जाए तो उसकी जिम्मेदारी मेरी होगी - मॉडरेटर

एक शार्क समुद्र से निकल कर रेत पर आराम से पड़ी है । वहीं एक नौकरशाह घूम रहा है । दोनों में बातचीत होने लगती है । कहो शार्क क्या हाल हैं तुम्हारे ? नौकरशाह मजे में हूँ । शार्क तुम किस तरह काम करती हो ? मैं सतह पर ही रहती हूँ और अपने स्तर पर ही घूमती हूँ । मैं भी ऐसा ही करता हूँ । शार्क , तुम्हारा काम करने का तरीका क्या है ? मैं लोकतांत्रिक ढंग से काम करती हूँ । मैं छोटी मछलियों से कहती हूँ कि हमारे समान अधिकार हैं । तुमलोग मुझे खाओ । वो मुझे नहीं खा पाती तब मैं कहती हूँ - अब मैं अपने अधिकार का उपयोग करती हूँ । फिर मैं उन्हें खा जाती हूँ । नौकरशाह ने कहा मैं भी ठीक ऐसा ही करता हूँ । तभी शार्क ने कहा अब मैं पानी में जाती हूँ अलविदा । नौकरशाह ने भी विदा ली ।

थोड़ी देर बाद नौकरशाह पानी में कूद पड़ा । जब निकला तो उसके दाँतों में शार्क फँसी हुई थी ! 
- आलोक झा

बुधवार, 23 मई 2012

'सूंघना बाबा'

यह लघुकथा हमारे लिए अंजुले एलुज्ना(Anjule Elujna) ने लिखी है। लघुकथा समवाय में यह उनकी पहली लघुकथा है। उन्होंने यह कथा शीर्षकहीन रूप में हमारे फेसबुक समूह पर डाली थी हम इसे 'सूँघना बाबा' शीर्षक से यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं - मॉडरेटर


चीजें इतनी महंगी थी की वो बस बाजार से निकलते वक़्त सूंघ के काम चलता था. घटती अमीरी और बढ़ती गई गरीबी ने उसे इसका आदी बना दिया. वो सूंघ करके बता सकता था फ़ला चीज का फ़ला सा, भला सा..क्या नाम है. वो बता सकता था सूंघकर, किस आदमीं के अन्दर कितना प्यार और कितना ज़हर भरा है. वो बिलकुल 'काठ का उल्लू' जैसा सीधा-साधा आदमीं था. जब उसकी इन खूबियों का पता चला तो लोग अपने-अपने जिस्मों को सुंघा कर पूछते थे,''उनके अन्दर कहाँ..? क्या-क्या..? और कितना भरा है..? वो बिलकुल सच-सच बता देता था बिना किसी मिलावट के. लोग अपने ही सच से घबरा कर उससे डरने लगे. और उनके इस डर ने उसे 'सूंघना बाबा' बना दिया.
-अंजुले

सोमवार, 21 मई 2012

पापा मैं जीना चाहती हूँ



महेंद्र प्रजापति(संपादक-समसामयिक सृजन) ने यह लघुकथा हमारे फेसबुक समूह पर चस्पा की थी जिसे आपके समक्ष इस ब्लॉग पर डाला जा रहा है। 'शरीरदान' पर लिखी यह 'लघुकथा' "पापा मैं जीना चाहती हूँ" 'साहित्य-अमृत' पत्रिका के 'जुलाई-२०११' अंक में प्रकाशित हुई थी.अभी इसका अनुवाद मराठी की एक पत्रिका 'स्त्री' में प्रकाशित हुआ जिसकी सूचना उन्हें कुछ दिन पूर्व ही मिली.अब वे इस पर १५-२० मिनट की एक 'शार्ट-फिल्म' बनाने की योजना बना रहा रहे हैं.आप भी इस लघुकथा को पढकर अपना सुझाव अथवा टिप्पणियाँ दें - मॉडरेटर


"क्या कहा डाक्टर ने? "-मिसेज शर्मा ने अपने पति को सवालिया नज़रों से देखते हुए पूछा.
शर्मा जी कुछ बोले नहीं सिर्फ फूट-फूट कर रोने लगे. आंसू पोछते हुए बोले- "सिर्फ १५-२० दिन का समय है हमारी बेटी के पास .ब्लड कैंसर अब उसे पूरी तरह जकड़ चुका है
"क्या" मिसेज शर्मा ने पति को फटी आँखों से देखा.
"हाँ ममता यही सच है.डाक्टर ने यही कहा है."-शर्मा जी पुन: बेजार होकर रोने लगे
"पापा"- बेटी ने अन्दर से आवाज दी.
"हाँ बेटी आया, बोलो ? "-शर्मा जी दौड़ कर बेटी के पास आ गए और उसका सर गोद में रखकर प्यार से सहलाने लगे जैसे आज सारा प्यार उस पर लुटा देना चाहते हों.मिसेज शर्मा तो बेटी के पास जाने की हिम्मत ही नहीं कर सकीं "
बेटी ने पिता को पहली बार इतनी पीड़ा में देखा था पूछ लिया-"क्या हुआ पापा ?"
कुछ तो नहीं बेटा आई एम फाइन"-अपने आंसुओ को पोछते हुए उन्होंने सबकुछ छुपाने की नाकाम कोशिश की.अपनी जागती आँखों से बेटी के डाक्टर बनने का सपना टूटते हुए देखकर अन्दर ही अन्दर घुट रहे थे.पर क्या करें ? वक़्त किसी का दोस्त और दुश्मन नहीं होता नियति ने उसको जिसके साथ जैसा वर्ताव करने का कार्य सौपा है वह पूरी इमानदारी और कुशलता से उसे निभाता है
बेटी ने सब समझ लिया था और पूछ लिया-"मेरे जीवन के कितने दिन शेष हैं पापा ?".शर्मा जी की जुबां हलक में जैसे अटक गयी लगा किसी ने उनका गला दबा दिया है.बेटी के इस सवाल के लिए वह बिलकुल भी तैयार नहीं थे.खुद को सँभालते हुए बोलने का प्रयास भी किये लेकिन बोल नहीं पाए.उनकी इसी ख़ामोशी ने बेटी के प्रश्न को और मजबूत कर दिया.जैसे कोई अचानक बहुत जरुरी काम याद आ गया हो बेचैन होकर बोली"-लेकिन पापा मैं तो जीना चाहती हूँ"- बेटी के इस शब्द ने शर्मा जी की ख़ामोशी को आंसुओं में बदल दिया.खुद के संभालने का नाटक ज्यादा देर कर नहीं पाए और पुन: फुटकर रोने लगे.कभी-कभी इन्सान को एक बार में ही इतनी पीड़ा का कष्ट उठाना पड़ता है कि,रोना उसे छोटा लगता है फिर भी आंसुओं का ज्वार पता नहीं कहाँ से उमड़ने लगता है.शर्मा जी उस समय उसी पीड़ा से गुजर रहे थे बेटी की जीने की इच्छा पर बोले-"बेटी मैं तो अपना सब-कुछ देकर खाली हाथ जाने को तैयार हूँ,बस तुमे कोई ठीक कर दे.चाहे मेरे जीवन भर की कमी ले ले.मेरे पास और कोई तरीका नहीं है बेटे.
"एक तरीका है पापा" , "एक तरीका है" - बेटी ने पिता को मुस्कुराते हुए देखकर कहा.
"क्या बेटी ? क्या ? जल्दी बताओ आंखे ख़ुशी से चमक उठी शर्मा जी की.आंसू नेपथ्य में हो गए.श्रीमती शर्मा जो दरवाजे के द्वार पे खड़ी थी वो भी आँखों में ख़ुशी लिए अन्दर आ गयीं.
"मेरे मृत्यु के बाद मेरा शरीरदान कर देना पापा" बेटी ने गर्व से कहा
"क्या कह रही हो ये? पागल हो गयी हो बेटी ?-शर्मा जी ने बेटी के इच्छा का तिरस्कार किया
"पागल भी कहीं ऐसी बाते करतें हैं पापा? बेटी ने फिर कोशिश किया
"हमारे धर्म में इसकी मान्यता नहीं है बेटी"-शर्मा जी धर्म का आश्रय लेकर विरोध किया लेकिन बेटी विचलित नहीं हुई.उसका संकल्प डिगा नहीं. वह खामोश नहीं हुई पुन: बोली-“हर धर्मं तो मानवता का संदेस देता है पापा.जो मज़हब इंसानियत न सिखाये उसे मानने से क्या फायदा ? फिर पापा, हमारा हिन्दू धर्म तो मानवीय संवेदना के लिए विश्व-विख्यात है.”
बेटी की बातों में विरोध नहीं बल्कि सुझाव का स्वर था.शर्मा जी थोडा झुके लेकिन धर्म का मोह नहीं छोड़ पाए.
यह कहना मुश्किल है कि, बेटी के शरीर दान करने का क्रन्तिकारी फैसला स्वीकार करने से उन्हें धर्म रोक रहा था या एक ऐसे पिता का दिल जिसने भूल से भी अपनी बेटी को थप्पड़ नहीं मारा हो तो उसका शरीरदान कैसे दे दें.उन्होंने एक बार यह कहकर बेटी को समझाने का फिर प्रयास किया- "बेटी जिस मानव का अंतिम-संस्कार सशरीर नहीं किया जाता उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलती" १८ वर्ष कि बेटी आज जैसे कोई दार्शनिक हो गयी थी.उसका एक-एक शब्द धर्म के भटकाव को सही रस्ते पे ला रहा था.उसने हार नहीं मानी पिता को पुन: समझकर बोलने लगी-"पापा आत्मा तो उनकी भटकती है जिनको ठिकाने नहीं मिलते.जरा सोचिये पापा, अगर मेरी आँखों से कोई देखेगा तो क्या मैं जिंदा नहीं रहूंगी? मेरा ह्रदय, जिसे आप जला कर मिटटी बनाना चाहते हैं, अगर वह किसी को नयी जिंदगी देगा तो क्या मैं जिंदा नहीं रहूंगी पापा ? मेरे शरीर के अलग-अलग अंग से अलग-अलग लोग नया जीवन पाएंगे तो क्या मैं उनमे जिंदा नहीं रहूंगी?
बोलते- बोलते बेटी अब माँ से मुखातिब हुई और बोली- " मम्मी पापा को समझाओ न जब इतने सारे लोग मेरे शरीरदान से नया जीवन पाएंगे तो और मुझे दुवायें देंगे तो क्या मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी ? " बेटी की बातें गीता-कुर्यान कि तरह सच थी.उसमे मानवता का संदेस था.शर्मा जी ने बेटी को गौर से देखा, जैसे बेटी के डाक्टर बनने का सपना पूरा हो गया.आखिर वह डाक्टर भी तो इसीलिए बनना चाहती थी न कि,
लोगों को नयी जिंदगी दे सके.हुलसकर शर्मा जी ने बेटी को गले से लगा लिया और फूट-फूट फिर रोने लगे लेकिन इस बार आंसू कष्ट,पीड़ा और बेबसी के नहीं थे बल्कि ख़ुशी,उत्साह और गर्व के थे.


सोमवार, 7 मई 2012

जो कभी हावी था दिलो-दिमाग पर...

दोपहर जिसमें सर्दियों के समापन का संकेत था। धूप पेड़ों से छनकर उस हरे लोहे के बैंच पर बैठी निशा के गालों और बालों को उम्रदराज़ बना रही थी। निशा के होंठो पर जमी पपड़ी कुछ कहना चाह रहीं थी। आंखें नीचे की ज़मीन में कुछ ढ़ंढ रही गिलहरी को घूर रहीं थी। चेहरा एक ही जगह जमा हुआ था लेकिन दिमाग में कुछ चल रहा था। मालियों की खुरपी माहौल को अशांत किये हुए थी। लंच होने ही वाला था शायद इसलिए वे अपना हाथ का काम समेट लेना चाहते थे। कौओ और गिलहरियों ने पेड़ों से उतरना शुरु कर दिया था। मिट्टी पर अभी पानी छिड़का गया था जिससे उठी खुशबू अब भी वसंत को क़ायम रखे थी।
निशा के बराबर में काफी देर से चुप बैठे विनोद ने पूछा - "क्या हुआ, कुछ तो कहो, चुप क्यों बैठी हो?" पलकें उठी, कोरों से पानी की कुछ बूँदें नीचे ही लुढ़कने ही वाली थी कि निशा ने चेहरे पर एकाएक मुस्कराहट लाते हुए कहा - "कुछ नहीं।" "... कुछ तो, प्लीज़ कुछ तो कहो? बताओ तो।" "... कुछ नहीं - कहा ना। क्या तुम भी मुझे चैन से जीने नहीं दोगे। मैं कुछ देर चुप रहना चाहती हूँ। इतने सालों की रिलेशनशिप में भी तुम ये नहीं समझ सके।" विनोद को जैसे ऐसे किसी जवाब की उम्मीद निशा से नहीं थी, वह अवाक् निशा के चेहरे को देखने लगा। उसने देखा उसके गाल होंठों की तरह सूखे हुए थे जैसे रात भर नमकीन द्रव्य में डूबे हों।..." प्लीज़ कुछ तो कहो..आज फैरेवल पार्टी है, कॉलेज का आखिरी दिन..कुछ तो बोलो..कुछ तो कहो.". उसने एक बार फिर कोशिश की।
निशा का शरीर जो अब तक अचेत था। एकदम हरकत में आया उसने अपने लाल पर्स से एक कार्ड निकाला और विनोद को थमाकर मालियों की मेहनत और लहराती घासों को कुचलती हुई चली गयी।
आज इतने सालों बाद भी निशा के पैरों के निशान उस जगह मौजूद है। उस बैंच पर उसका अहसास मौजूद है। उसके जेहन में हर साल सर्दियों की समाप्ति निशा के खयाल को पैदा कर देती है।

शहर में प्रेम

तेज़ हवा में अपने बालों को संभालतीं तुम दूर खड़ी थीं। मैं पास आ रहा था। पीले सूट पर सफेद चुन्नी क्या फ़ब रही है तुम पर। तारीफ़ करने पर भी तुम आग बबूला हो गयी थी। 'आज फिर लेट, तुम्हारी बात की कोई वैल्यू है या नहीं। जानते हो कितनी देर से यहाँ खड़ी हूँ, लोग ऐसे घूर रहे हैं जैसे अभी खा जाएंगे। मुझे ये सब बिल्कुल पसंद नहीं और तुम्हारा फोन , तुम्हारा फोन क्यों नहीं लग रहा।' एक साथ उसने इतने सवाल कर डाले। 
मैं उसकी आँखों में प्यार तलाश रहा था पर उनमें अजब बदहवासी और खौफ़ था।

शनिवार, 5 मई 2012

Valentine's Day

दूर वो दिखाई दी।.. उसने सोचा अब तो दे ही दूँ , पर फिर रुक गया। उसे आज ही उसके दोस्त ने कहा था कि ऐसे मामलो में जल्दबाजी ठीक नहीं। उसने फिर कंधे तक लटके बैग को पीछे किया और चेहरे पर आई बेचैनी को हटाने की कोशिश करने लगा। "कैसे दूँ वो बुरा तो नहीं मानेगी ना? कहीं दोस्ती भी ...नहीं-नहीं" उसने अपने अंदर एक और लड़के के होने का आभास महसूस किया। "दे ही देता हूँ अब नहीं दूँगा तो कब दूँगा।" वह उसके पास गया..फरवरी की धूप में वह ऐसी दिखती मानो कच्छ के रण मे पानी की चमक। उसने पास जाके थोड़ा हिचकिचाकर कहा.."एक्सक्यूज़ मी" ..
"हाँ क्या है",
 "कुछ नहीं "
वह फिर रह गया। उसे लगा यह वो लड़की नहीं जिसे वह चाहता है। बैग की चेन जो उसने खोल ली थी। बंद करके बैग कंधे पर टांग लिया। ऐसा लगता है मानो कल की ही बात हो। 
पिछले नौ सालों से आज के दिन हर बार डायरी के भीतरे छुपाये गये फूल को देख कर वह अपने कॉलेज के दिनों में खो जाता है। 

गुरुवार, 3 मई 2012

चिक्की

चिक्की के गाल पर हाथ फेरते हुए उसे ऐसा एहसास हुआ मानो यह स्पर्श महसूस किये उसे ज्यादा समय नहीं बीता। चिक्की जब मुस्कराता, हँसता,खेलता.रोता, उसके चेहरे और छातियों पर अपने हाथों से थपकी मारता, यह एहसास उसे फिर फिर होता और वह उन स्मृतियों में खो जाती जब उसने और चिक्की के पापा ने जीने मरने की क़समें साथ-साथ खाई थी। तब उसे 'हम बने तुम बने एक दूजे के लिए' फिल्मी गीत बेहद पसंद था। लेकिन समय हमारी सोच और धारणाओं के साथ साथ हमारे ख्वाबों को भी कितना बदल देता है। आज उसे अक्सर 'क्या हुआ तेरा वादा..याद है तुझको तून कहा था..' अपने दिल के अधिक करीब लगता है। आज चिक्की का जन्मदिन है। यहाँ आने से पहले उसने खुद को कितना समझाया था कि वह न जाए लेकिन जैसे उसका अपने पैरों पर बस ही न था जैसा पहले दिल पर नहीं था। पूरे रास्ते कॉलेज के दिनों की यादें उसे सालती रहीं।
चिक्की की मम्मी और उसकी दोस्ती हुए ज्यादा समय नहीं बीता है। जब उसे पता चला कि चिक्की की मम्मी अजय की ही पत्नी है, तब उसने खुद को इस सब से काटने की कोशिश भी की, लेकिन फिर रह गयी..
आज इस समय जब घर में पार्टी का माहौल है चिक्की अपनी इस नई आँटी को छोड़ने को तैयार नहीं है और वह भी कहाँ चाहती है कि चिक्की उसे छोड़े
कितना अरसा गुज़र गया है किसी को प्यार किये। आशा ने फिर धीरे से आँखे चुराते हुए चिक्की के गाल पर अपने होंठो का एक हल्का स्पर्श रख दिया। उसके गालो का स्वाद बहुत जाना पहचाना था।

बुधवार, 2 मई 2012

स्मृति में प्रेम

कॉलेज का विदाई समारोह क्या मेरे प्यार का भी आज आखिरी दिन है? उसके मन में यही सवाल था उस दिन। उसकी नज़रे उसे खोज रहीं थी पर वो जैसे कहीं नहीं थी वह फिर कैंटीन की छत से कॉलेज के कॉरिडोर की ओर भागा पर उसे वहाँ भी नहीं पाया। उसकी सहेली ने बताया कि वो कॉमन रूम में तैयार हो रही है। वह इंतजार करने लगा। फिर वह बाहर निकली साड़ी का रंग नहीं बता सकता बहुत डिफ्रेंट थी बिल्कुल उसकी आँखों की तरह। दुनिया में ऐसी आँखें किसी की नहीं थी। वो ऐसा मानता था। वह उसके सामने से गुज़र गयी। वह कुछ बोल नहीं पाया। उसके साथी खुश थे। पर क्या था जो उसके मन में चल रहा था? वह फिर उसे खोजने लगा। कॉलेज के पिछले तीन सालों में वह इतना कभी खाली नहीं हुआ जितना कि आज। उसे लगा कि दिल से कोई द्रव्य निकल रहा है उसने दिल पर हाथ रखा पर कुछ नहीं निकल रहा था वहाँ कुछ तेजी से बज सा रहा था। वह कैंटीन की छत पर गया उसने देखा कि वह रुपेश के साथ फोटो खिचवा रही थी वह बहुत खुश थी रुपेश हमारी क्लास का सबसे डैशिंग लड़का था। उस दिन उसे पहली बार लगा कि वह बेहद बदसूरत है। उसे लगा कि उसकी माँ को बचपन में उसके माथे पर काजल नहीं लगाना चाहिए था उसे पहली बार माँ से इतनी शिकायत हुई।