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सोमवार, 10 दिसंबर 2012

थोडा सा सुकून


दौड़ते- भागते न जाने कितनी कहानियाँ हमसे टकराती हैं। कुछ हमें हवा की तरह हलके से छूकर निकल जाती हैं तो कुछ हमारी आँखों के फ्रेम में तस्वीर की तरह जम जातीं हैं और कुछ हमारे बगल में हमारे साथ कुछ ऐसे चिपक कर बैठ जाती हैं जैसे वो न जाने कबसे हमें ढूंढ रहीं थीं और आज जबकि हम उन्हें मिले हैं तो उन्हें कुछ वक्त के लिए ही सही पर थोडा सा सुकून तो मिला है।
सुकून!! बड़ा ही अजीब किस्म का शब्द है। पता नहीं कितने ही रंग की मिट्टियों में दबा रहता है ये शब्द। ज़रा सी हवा चली नहीं कि कागज़ के पुर्जे की तरह कहीं भी पहुँच जाता है। बिना किसी की इजाज़त के किसी की गोद में छुप जाता है तो किसी की उँगलियों के पोरों में गम हो जाता है। किसी की मुस्कराहट में, किसी की आँखों में तो किसी के कंधे पर ही चिपक जाता है और कभी कभी किसी के अन्दर हवा की तरह ऐसे घुल जाता है कि क्या कहें।
उस दिन मेट्रो में सफ़र करते वक्त ये सुकून नाम का पुर्जा मेरे अन्दर न जाने कब घुल गया था मुझे इसका अंदाज़ा तब हुआ जब मेरा खाली दिमाग मेट्रो की तुलना एक अलग ही संस्कृति को समेटे पैसेंजर ट्रेन से कर रहा था जिसमे कितने ही छोटी छोटी दुकानदारियाँ समेंटे कभी कोई चने वाला चढ़ता है तो कभी दालमोठ वाला, कभी अदरक, मिर्ची या मूली लिए कोई बूढी अम्मा नज़र आती हैं तो कभी खिलोने या ऐसी ही कोई चीज़ बेचने आये कोई बूढ़े अंकल। मैं सोच रही थी कि मैं मेट्रो की जगह पैसेंजर ट्रेन में सफ़र कर रही होती तो मेरा दिमाग घर की रसोई की तरफ नहीं दौड़ रहा होता ट्रेन में ही मेरे खाली पेट का चटपटा निवारण हो गया होता। मेरा दिमाग इन्हीं ख्यालों में था कि अचानक एक आवाज़ ने मेरा ध्यान खींचा। मेरे बगल में अधेड़ उम्र की एक महिला खडी थीं। जो कुछ तेज़ आवाज़ में अपनी बगल वाली महिला से कह रहीं थीं कि मेट्रो में भी बैठने के लिए जगह नहीं मिलती है। चाहे कितना ही क्यों न थके हो खड़े होकर ही जाना पड़ता है। मुझे उनकी बातें अन्दर तक भेद रहीं थीं क्योंकि मुझे लग रहा था की कायदे से मुझे उनके लिए सीट खाली कर देनी चाहिए पर 55 मिनट के लगातार तीन लेक्चेर्स के बाद मेरे अन्दर केवल इतना ही दम रह गया था कि में या तो मम्मी का लंच ले जाने का आग्रह ठुकराए जाने पर पछताऊँ या फिर मेट्रो की तुलना पैसेंजर ट्रेन से करके खयाली पुलाव पकाऊ। मन तो कह रहा था कि उठ जाना चाहिए पर शरीर मना कर रहा था। पर शायद भगवान ने मेरी सुन ली थी क्योंकि मन और शरीर की इसी कशमकश को विराम देते हुए अचानक मेरे बगल वाली सीट खाली हो गई और वो महिला मेरे बगल में आकर बैठ गईं . आह !! मैंने सुकून की सांस ली। अपने अन्दर घुले सुकून का मुझे हल्का सा एहसास हुआ। तभी मुझे लगा कि उन्हें कुछ दिक्कत हो रही है इसलिए मैंने उनसे पूछा कि- आप ठीक से तो हैं न, कोई दिक्कत तो नहीं?
मेरी बात सुनकर जैसे उनके चेहरे पर चमक आ गई और वो बोलीं- हाँ बेटा मैं ठीक हूँ। बहुत दूर से आ रही थी बहुत थक गई थी। पर क्या करूँ थकान ही जिंदगी है। उनकी बात सुनकर मैंने एक संवेदनापूर्ण मुस्कराहट के साथ सहमति व्यक्त की। दरअसल मुझे समझ ही नहीं आया था कि उनकी इस बात पर क्या कहूं। पर शायद उन्हें पता था कि उन्हें मुझसे क्या कहना है। बातों ही बातों में उन्होंने मुझे अपनी पूरी कहानी सुना दी कि कैसे 47 वर्ष की जिंदगी में उन्होंने जीवन में कितने दुःख उठाये। जब लगा कि बेटे से सुख मिलेगा तो वो भी अपनी पत्नी के साथ दूसरे शहर चला गया और रह गईं वो और उनके पति जो आपस में जैसे-तैसे कर के अपने सुख-दुःख बाँट लेते है। इतने में उनका ध्यान बगल में आकर खड़ी हुई एक लड़की पर गया जिसने अनारकली ढंग का सूट पहना हुआ था। उसे देखकर वो बोलीं- आजकल ऐसे सूट बहुत चल रहे हैं। तुम बच्चों पर ही अच्छे लगते हैं, जिसपर मैंने कहा कि आप पर भी ऐसा सूट बहुत अच्छा लगेगा। मेरी बात सुनकर वो फिर गंभीर हो गईं और बोलीं- भगवान् तुझे हमेशा सुखी रखे बेटा पर न तो अब शौक करने की मेरी उमर है और न ही तेरे अंकल के पास इतना पैसा। जैसे-तैसे कर के हम जिंदगी गुज़ार रहे हैं। सुख की चाह में 47 बरस बिता दिए पर केवल दुःख मिला, कहते-कहते वो सुबक पड़ीं। तब मैंने उनका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा कि आंटी अब तक आपकी जिंदगी में जो हुआ, या जो दुःख आये उसे तो नहीं बदला जा सकता पर इतना विश्वास मानिए कि अब आपकी जिंदगी में इतनी खुशियाँ आएँगी कि आप पिछला सब कुछ भूल जाएँगी। मेरी बात सुनकर वो उत्सुकता से बोलीं तू सच कह रही है बेटा?
मेने कहा- हाँ में बिलकुल सच कह रही हूँ। मैं कोई ज्योतिषी या भविष्य वक्ता तो नहीं पर पता नहीं मैंने कैसे इतने विश्वास के साथ उनसे यह कह दिया था। मन ही मन भगवन से प्रार्थना भी की थी कि प्लीज़ मेरी बात मान लेना। इसके बाद मैंने उठते हुए कहा कि मेरा स्टॉप आ गया है मुझे जाना होगा। पर मेरी बात आप ज़रूर याद रखना।
वो जैसे ये मान कर बैठी थीं कि मैं उनके साथ कुछ और दूर तक जाऊंगी, मेरी बात सुनकर हैरानी से बोली- बस तू यहाँ तक ही है मेरे साथ।
उनकी बात का जवाब देने का समय नहीं था मेरे पास वरना शायद मैं उनसे कहती कि यहाँ तो जिंदगी का नहीं पता कि कौन कितना साथ निभाएगा फिर ये तो मेट्रो है जहाँ कहानियां अपने सजीव पात्रो के साथ अजनबियों में सुकून तलाशती हैं जैसे एक कहानी ने मुझमे अपना थोडा सा सुकून तलाशा।

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

अर्धांगिनी

बचपन में मास्टर जी ने कहा - मूर्ख। जानता है मूर्ख किसे कहते है। और संटी हाथों पर जड़कर चलते बने। ये फ्लैशबैक के दिन थे। फिर बचपन खत्म हुआ और हम कॉलेज में पहुँच एकाएक जवान हो गये। असल कहानी यहाँ शुरु हुई..

हमारे पास सिवाय मान जाने के कोई चारा नहीं था। हम सब दोस्त(एक के अलावा) आखिरकार मान गये। हमने अपने दिल को समझाया और अपनी राह को एक खूबसूरत मोड़ दे दिया। पर हम परेशां थे कि ये सारे मोड़ उसी मंज़िल की ओर फिर फिर क्यों बढ़ जाते हैं जिसे हम छोड़ना चाहते है। फिर हमने तय किया कि हम इन मोड़ों को भी अपनी राहों से हटा देंगे। हालांकि हम ऐसा कर नहीं सकते थे फिर भी हमने पूरी कोशिश की। हमने भरसक कोशिश की कि हम उसे भुला दें। पर वो हमारे जहन में एक बुरे सपने की तरह हावी थी। हम उन दिनों को कोसने लगे जब हमने उसे एक सुंदर, सुशील सभ्य मानने की गुस्ताखी की थी। हमारे आने वाले दस साल इस गुस्ताखी की सजा बने। ह
मने सजा पूरी ईमानदारी से भोगी। आज सन २०१२ में जब हमारा एक दोस्त डिप्टी सुपरिटेंडेंट है हमने जानना चाहा कि हमारी गलती क्या थी? उसने फिलॉसफी झाड़ते हुए कहा गलत युग में गलत न होना भी एक गलती है। अरे ये क्या बात हुई। हाँ टोटल ईमानदारी भी अपने आप में एक बेईमानी है। ये वही दोस्त है जो एक समय हम सबमें सबसे ज्यादा निकम्मा माना जाता था। जिसके बारे में हमें लगता था कि ये तो गया इसका क्या होगा। न पढ़ता है न पढ़ने देता है। हम किताबों में डूबे रहते ये शहर की खाक़ झानता, लोगो से बतियाना इसका प्रिय शगल था। २००५ के बाद से हमारी मुलाकात नहीं हुई थी हमने भी ध्यान नहीं दिया सोचा होगा साला कहीं। फिर पिछले साल मिला हमारी गुस्ताखी को अपनी अर्धांगिनी बनाये हुए। उस दिन हमें मूर्खता की परिभाषा मालूम हुई।

ह्यूमिडिटी


वो दिन रोज की तरह नहीं था। उस दिन हवाओं में कुछ ज्यादा ही नमी थी। ऐसा मैंने अपने बचपन में भी महसूस किया था। उस दिन भी विश्वस्त सूत्रों के मुताबिक मौसम समाचारों में शहर में ह्यूमिडिटी की बहुतायत बताई गई थी लेकिन एकाएक शहर में ये ह्यूमिडिटी, ये आद्रता कैसे बढ़ गई इसका जवाब उनके पास भी नहीं था। वे सोच में मग्न थे कि हम इसका कयास तक कैसे नहीं लगा सके? चीज़े एकदम से बदल गई थी कुछ लोग दुखी थे लेकिन चेहरे पर सुख का लबादा चिपकाये थे बहुत सारे लोग खुश थे लेकिन चेहरे को दुखनुमा बनाये थे। कुछ लोग और थे जो न तो खुश थे न दुखी। वे खुश और दुखी दिखने के चुनाव में फँसे हुए थे। सन् १९९२ के बाद से हर बार दिसंबर की ये सर्द सुबह ऐसे ही नमी लिए आती है। इस नमी की तारीखें अब दिनों दिन बढ़ने लगीं है साथ ही तीसरे दर्जे के कुछ लोगों की तादात भी दिनोंदिन बढ़ रही है। कुछ लोगों के लिए ये तारीख़ एक वाकया है। कुछ के लिए एक घटना-परिघटना-दुर्घटना। तो कुछ के लिए किसी महापुरुष का परिनिर्माण दिवस। मेरे लिए ये दिन मेरे बचपन के साथी अफसाना और फिरोज़ की विदाई का दिन है। क्योंकि इसी दिन की दोपहर के बाद उनके पिता ने एक हिंदु बहुल इलाके को छोड़ने का फैसला लिया।

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

सियासी लप्रेक



नीलिमा ! हां निखिल. तुमने सुना आज एनडीटीवी पर रामविलास ने क्या कहा ? क्या कहा ? कहा कि जो अन्तर्जातीय विवाह करते हैं, उनके बच्चे को रिजर्वेशन मिलता है तो उससे जाति टूट जाएगी..तो मतलब ये कि लोग बच्चों का भविष्य बेहतर करने के लिए प्रेम करने लगेंगे ? प्रेम का इतना खूबसूरत निवेश निखिल..मतलब हमारे बच्चे भी ? लेकिन हमने ये सोचकर तो प्रेम नहीं किया न नीलिमा. हमने तो बस इसलिए प्रेम किया क्योंकि हमदोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं. हमारी सोच मिलती है. हमने तो कभी ये दावा नहीं किया कि हम प्रेम करके जाति व्यवस्था तोड़ रहे हैं..हम तो बस प्रेम कर रहे थे.अब पीछे क्या टूट रहा है क्या बन रहा है इसकी व्याख्या का काम तो सत्ता में बैठे लोगों का है न. लेकिन तुम बताओ निखिल, अगर सचमुच ऐसा हो जाए तो तुम उसे कैसे लोगे ? मेरा मतलब है उर्मि/ अव्यव को इसका लाभ लेने दोगे ? आखिर जाति के बंधन तोड़क
र प्रेम और शादी करने में भी तो हमें उतनी ही तकलीफ हुई और आगे होगी न जितनी कि एक दलित को दलित बच्चे को जन्म देने और परवरिश करने में होती है ? हम ऐसा करते हुए उंची जाति के होकर भी तो उसी तरह बहिष्कृत कर दिए जाएंगे न, अपने समाज से काट दिए जाएंगे ? उर्मि/ अवयव को कितनी जिल्लत उठानी होगी ? नाना,दादा सब किताबों तक होंगे. नीलिमा, क्या हमारा प्रेम इतना सियासी हो जाएगा कि समाजशास्त्र के सारे पाठ इसी से खुलेंगे और लिखे जाएंगे ? तुम कैसी-कैसी बातें कर रही हो ? फॉर गॉड सेक, तुम उसमें अभी के लिए कुछ ग्राम छायावाद के नहीं डाल सकती ? तुमने बाबा नागार्जुन की सिंदूर तिलकित भाल कविता तो पढ़ी होगी, उसे याद नहीं कर सकती ? हमने जो फैसला अपनी खुशी के लिए लिया, वो आनेवाली पीढ़ी के लिए निहायत एक स्वार्थ में लिया गया फैसला समझा जाएगा ? मुझे डर लग रहा है नीलिमा, हमारे इस खूबसूरत संबंधों के बीच समाज की दीवारें तो आएगी, ये जानता था लेकिन उन दीवारों में संसद की ईंटें भी चुनवायी जाएगी, सपने में भी नहीं सोचा था..उर्मि, तुम जब भी इस दुनिया में आना, सिर्फ प्रेम करना, अपने उस प्रेम को संसद के गलियारों की गूंज न बनने देना. अवयव, तुम यकीन तो कर सकोगे न कि हमने एक औलाद की सुविधाएं जुटाने के लिए प्रेम नहीं किया था ? प्रेम किया था क्योंकि ये दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज है.( सियासी लप्रेक )

प्रेम गली नहीं सांकरी - माया मृग


"तुमने कहा, "कहां गया वो पहले वाला प्‍यार...वो प्रेम...।"
पता नहीं.....उलाहना दे रही हो कि रखे की जगह पूछ रही हो....
....मुझे क्‍या पता तुम ही रख देती हो सब कुछ इधर उधर कहीं....। बीच रास्‍ते कहीं गिर ना गया हो...ठहरो, देख आता हूं...जिस रास्‍ते से आता है, उसी से लौट भी जाता है कई बार....कहीं कोई पैरों का निशान भर दिख जाए....बस...ढूंढ लूंगा...। अच्‍छा एक बार वो आला देख लेती....उस खिड़की के पास, जहां से तुम आते-जाते देखा करती थीं मुझे....हो सकता है मैंने ही कहीं देखा हो....मैं भी तो चीजें रखकर भूल जाता हूं आजकल....."
(माया मृग की वॉल से साभार)

पूरी संभावना है कि यह वक्तव्य माया मृग जी ने लघुकथा के रूप में न लिखें हों, लेकिन मुझे इमें एक लघुकथा दिखी सो यहाँ चेप दी। बाकि का हक़ आपका। - तरुण

बुधवार, 29 अगस्त 2012

बा॰ल॰क॰= बाल लघु कथा


बा॰ल॰क॰= बाल लघु कथा
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चल उठ। नाश्ता कर। बाल सँवार। वर्दी पहन। स्कूल जा। सबसे अच्छे नंबर ला। बड़ा आदमी ( डॉक्टर, इंजीनियर , आई ए एस आदि ) बन। राजा बेटा। सो जा।

चल उठ। कर ले नाश्ता। भाई को कराया? तू भी चली जा न स्कूल वैसे ... । कुछ सीख उससे । खाना बना। बर्तन माँज। चल सो भी जा अब। टी वी देखेंगी रानी साहिबा !!!

Dil, Dosti, etc in बारिश


अरे नीर,तुम अचानक ? फोन पर बताया नहीं कि तुम आ रहे हो ? और तुम तो बुरी तरह भीग गए..जींस से इतना पानी टपक रहा है..रुको मैं अभी तुम्हारे लिए कपड़े लेकर आती हूं..लेकिन तुम्हें तो मेरे कपड़े आएंगे नहीं..आइडिया ! खादी का कुर्ता-पायजामा.आ जाएगा तुम्हें..अभी लाती हूं..नीलिमा कपड़े लाने दूसरे कमरे चल देती है..जब तक कपड़े लेकर वापस आती तब तक नीर अपना काम कर चुका था. ये क्या पागलपंथी है नीर ? तुमने मेरी पोल्का डॉटवाली लोअर पहन ली और ये टीशर्ट. टीशर्ट पहनते वक्त पढ़ा भी तुमने कि इस पर क्या लिखा है ? पागल तो नहीं हो. इसे पहनकर मेट्रो से वापस अपने घर जाओगे? लोग हंसेंगे नहीं कि ये कौन लड़का है जो स्कीनी पोल्का डॉट लोअर में, लड़की के कपड़े में घूम रहा है. अरे नहीं, कुछ नहीं कहेंगे. किसकी मजाल है कि मुझे कोई कुछ कह दे. फिर कह भी दिया तो कह दूंगा- लड़की के कपड़े नहीं 
पहने हैं मिस्टर, इसी बहाने एक चुटकी नीलिमा को अपने साथ लेकर घूम रहा हूं और अगर लड़कियों ने ठहाके लगाए या एटीट्यूड में स्माइल पास की तो जोर से कहूंगा- जलन होती है देखकर ? तेरे उन घोंचू, बकरे सी दाढ़ी रखनेवाले से तो अच्छी ही दिख रहा हूं. और पढ़ लिया क्या लिखा है- इट्स माइ शो.वैसे एक बात कहूं, तुम्हें इस तरह की चीजें लिखी टीशर्ट नहीं पहननी चाहिए..इट्स माइ शो..आखिर तुम खुद अपने को मेल चावइज्म की कॉमडिटी बताती हो.
..बस-बस रहने दो. अब नुक्कड नाटक की रिहर्सल यही मत करने लगो. लेकिन तुम्हें पता है ये लोअर और टीशर्ट मैं पहले दो बार पहन चुकी हूं और धोने के लिए इसे खूंटी पर टांग रखी थी. नीर बिना कुछ बोले ड्रेसिंग टेबल की तरफ बढ़ता है और स्पिंज को इतनी जोर से दबाता है कि एक बूंद भी डियो उसके भीतर न रहे..लो अब तो कोई नहीं कहेगा न कि एक तो लड़की के कपड़े पहन लिए और उपर से इतने गंदे की स्मेल आ रही है. अरे पागल, ये तो उससे भी ज्यादा नौटंकी हो गई..कपड़े के साथ-साथ डियो भी लड़की की ? आखिर तू चाहता क्या है, रुक जाता दो मिनट तो क्या बिगड़ जाता ? मैं तो कुर्ता पायजामा ला रही थी न ? कुछ भी तो नहीं. बस ये कि मैं इस इलाके से गुजर रहा था तो इतनी तेज बारिश होने लगी कि मुझे समझ नहीं आया कि क्या करुं? पिछले दो घंटे से भीग रहा था. मन में आया कि कुछ कामचलाउ कपड़े लेकर किसी रेस्तरां के वाशरुम जाकर बदल लूं लेकिन फिर तुम्हारा ध्यान आया कि अरे नीलिमा भी तो इधर ही रहती है,वहीं चलते हैं. यकीन मानो, जब तुम्हारे यहां चलने का मन बनाया तो दिमाग में ये बात बिल्कुल नहीं थी कि अगर तुम्हारा ब्ऑयफ्रैंड होगा तो इसे किस तरह से लेगा? मेरे दिमाग में ये भी नहीं आया कि अगर तुम्हारी खूसट मकान मालकिन ने दूसरे कपड़े में बाहर निकलते देख लिया तो क्या सोचेगी ? मैं तो बस ये सोच रहा था कि निखिल की कोई न कोई टीशर्ट और लोअर तो होगी ही, पहन लूंगा..कौन पैसे फसाए..नहीं तो तुम्हारी ही जिंदाबाद. मुझे तुम्हारे लड़की होने के पहले दोस्त होने का ख्याल आया और मैं बस चला आया. एनीवे,मैं ये तुम्हारे कपड़े लौटा दूंगा या फिर उस बारिश और मौके का इंतजार करुंगा जब तुम फोन करके कहोगा- यार नीर ! मेरे कपड़े होंगे न तेरे पास..देख न आज मैं इधर जंगपुरा आयी थी और बारिश में बुरी तरह फंस गई.( बरसाती लप्रेक विद दिल,दोस्ती, एटसेट्रा)

एक दृश्य जिंदगी


बगल में रखे सुन्न से मोबाइल फोन पर उसने एक सरसरी सी निगाह डाली और अपनी आँखें भींचकर चेहरा दूसरी तरफ ऐसे घुमा लिया जैसे घर के अंदर घुसने को आतुर अपने किसी बेहद अन्तरंग के मुंह पर अनायास ही दरवाज़ा पटककर सहज होने की बेहद नाकाम सी कोशिश की जाए. इसी कोशिश के तहत उसने अपनी निगाह खिड़की से बाहर बिल्डिंगों से तराशे गए आकाश पर टिका दी जहाँ कितने ही बेचैन परिंदे इधर से उधर न जाने किस फ़िक्र में भटक रहे थे. उसकी निगाहें देर तक उन परिंदों की फ़िक्र के साथ कुछ तलाशने का बहाना करती रहीं और फिर न चाहते हुए भी वापस मुर्दा हो चुके मोबाइल पर आकर टिक गईं.नज़र टिक जाती है मगर ख़याल नहीं टिकते. अदृश्य परिंदों की तरह जिंदगी से तराशे गए दिमागी आसमान में न जाने किस फ़िक्र में चक्कर लगाते रहते हैं, इधर से उधर और हासिल कुछ भी नहीं. वही बदहवासी, वही फिक्रमंदी और वही बेवजह की उड़ान इधर से उधर. शायद यही जिंदगी है. मोबाइल पर टिकी निगाह ने जैसे एक पूरी उम्र का फलसफा पेश कर दिया था उसके सामने. एक पूरी उम्र जो उसने इन दो वर्षों में बिताई थी एक चित्रपट के समान आँखों के सामने से गुज़र गई.
पहली बार जब वो कुसुम से मिला था. कितना अजीब सा था वो मिलना. पूरी तरह से उन्रोमंटिक. पर आज वही सब कुछ कितना ख़ास और कितना अलग लगता है.लगता तो ऐसा भी है कि काश जिंदगी को rewind किया जा सकता तो वो अपनी टिकी हुई निगाह की तरह थाम लेता वक्त के उस टुकड़े को और जिंदगी वहीं ठहर जाती न कोई बदहवास और फिक्रमंद उड़ान होती न ही कुछ और तलाशने और पाने की इच्छा..
उसे याद आता है मस्तिष्क पर खिंचता उसकी खूबसूरत सी उस नई जिंदगी के चित्रपट का वो पहला दृश्य जिसका दिन और तारीख तो उसे याद नहीं पर इतना ज़रूर याद है कि ऑफिस में 'उसका' वो पहला दिन था. खूबसूरत हरे रंग की साड़ी में कितनी खिल रही थी वो ये उसने नहीं देखा था क्यूंकि वो एक निर्लिप्त और वीतरागी व्यक्ति के समान अखबार पढ़ रहा था. उसका ध्यान कुसुम की तरफ तब गया था जब वो अचानक उसके बगल में आकर बैठी और उसकी साड़ी के पल्लू का किनारा उसके हाथ पर आ गिरा. उसे याद है कि किस तरह उसने गुस्से में एक झटके से उसके पल्लू को वापस उसकी और उछाल दिया था और तब कुसुम ने कहा था ओह आई एम सो सॉरी. उसने तभी उसकी और नज़र घुमाकर देखा था. उस वक्त उसकी सहमी हुई सी आँखें देखकर उसे पहली बार एहसास हुआ कि जैसे उसका निर्लिप्त और वीतरागी ह्रदय किसी अदृश्य राग में रम गया है. बस यहीं से हो गई थी शायद एक नई जिंदगी की शुरुआत.
नई जिंदगी... कितने कमाल की बात है कि एक उम्र की इस जिंदगी में टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी न जाने कितनी जिंदगियां बसती हैं. छोटी-बड़ी जिंदगी, रंगीन तो कभी बदरंगी जिंदगी, धूप सी उजली रौशन जिंदगी तो कभी स्याह काली जिंदगी. और भी न जाने कितनी अनगिनत जिंदगियां. रोज़ जीती और दम तोडती जिंदगियां. इन्हीं ज़िन्दगियों में इन्सान गुज़रता रहता है. एक जिंदगी से दूसरी जिंदगी में गोता लगाता रहता है और इसी बीच अपने दिल से अपने हाथ में थामी हुई उसकी अपनी जिंदगी कब उसके हाथ से फिसल जाती है उसे खुद पता नहीं चलता...
दृश्य ख़त्म हुआ नहीं कि विचारों की एक बेवजह की उठापटक शुरू. शरद इसी झुंझलाहट में जोर से अपना हाथ मेज पर पटक देता है, पर इससे क्या होता है. सवाल तो सवाल हैं उठेंगे ही. बे सर-पैर के सवाल जिनका जवाब पाने की न तो खुद उसकी तरफ से कोई कोशिश है और न ही कोई इच्छा. पर जवाब मिले न मिले सवाल तो उठेंगे ही, उठ ही रहे हैं. कोई बेगाना पूंछे तो और बात है पर यहाँ तो अपना दिमाग पीछा नहीं छोड़ता. फ़िज़ूल के सवालों की रस्साकशी आखिर पटक ही देती हैं उसे उस भंवर में जहाँ वो सोचने लग जाता है कि आखिर कुसुम में ऐसा क्या था जिसने उसकी जिंदगी को अचानक ही एक नई जिंदगी से नवाज़ दिया था. शायद उसकी सादगी, उसका भोलापन, उसके चेहरे पर खिली हुई मुस्कराहट या फिर खुद उसके अपने मन के खालीपन को भरने की एक अनवरत तलाश जो एक अनजानी सी चाह में कुसुम के आस-पास सिमट आई थी. या कुछ और... पता नहीं. एक बार फिर वह सवालों के पुलिंदे को उठा कर जैसे खिड़की से बाहर फेंक देता है इस एक जवाब के साथ कि कुसुम में कुछ ऐसा था जिसने एक उम्र से सोये पड़े उसके बचपन को मासूम सी अंगडाई के साथ जगा दिया था.
और इसके साथ ही फिर एक दृश्य शुरू जिसमे उसकी आँख एक नई सुबह में खुलती है. जिंदगी वाकई कितनी बदल सी गई थी इस दृश्य में. रोज़ ही की तरह सूरज का निकलना, पक्षियों का चहचहाना. ऑफिस निकलने की भाग दौड़, वही खाना, वही पीना वही सोना. सब कुछ वही पहले जैसा ही तो था लेकिन उस सब में एक नए किस्म का बदलाव आ गया था. जिसके बारे में वो खुद बहुत हैरान था.
दृश्य आगे बढ़ता है जहाँ वो खुद को कुसुम के ख्यालों में कहीं गुम पाता है..... शायद कुसुम भी ऐसा ही कुछ महसूस करती रही होगी. शायद जैसा बदलाव उसकी जिंदगी में आया है वैसा ही बदलाव उसकी जिंदगी में भी आया हो और शायद वह भी उसके बारे में ऐसा ही कुछ सोचती होगी जैसा कि वह. और इसी उधेड़बुन में अनगिनत सुबह, शाम और रातों का गुज़र जाना और इसके साथ ही वक्त का सूखे पत्ते की तरह झुर्र हो जाना. और इसके साथ ही जिंदगी का अचानक सिकुड़ सा जाना....
इसी दृश्य में उसे याद आता है कि बिल्कुल पहली मीटिंग की तरह पूरी तरह से फ़िज़ूल और अनरोमेंटिक अंदाज़ में उन दोनों का रोज़ ऑफिस में मिलना. उसकी रोज़ हैलो से आगे बढ़कर कुछ कहने की नाकाम कोशिश करना और आखिर एक बेतुकी सी मुस्कान के साथ संवाद की प्रक्रिया का शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाना. खूबसूरत जिंदगी के अनगिनत टुकड़ों को समेटे आखिर ये दृश्य एक उजाले के साथ ढल जाता है. एक ऐसा उजाला जिसने बंद कमरे में चुपचाप बैठे शरद की आँखों में एक नई चमक भर दी. गुनगुनी धूप से भरा यह दृश्य जैसे एक पूरी जिंदगी नहीं बल्कि न जाने कितनी जिंदगियों की चमक को अपने समेटे हुए था. और फिर इसी उजले दृश्य के साथ स्मृतियों के अदृश्य चित्रपटल पर एक और दृश्य उभर आता है. उसे याद आता है वो वाक्य जो उसने शर्माजी की रिटायरमेंट पार्टी के वक्त चुपके से कुसुम से कहा था और जिसने उसकी जिंदगी को एक और खूबसूरत सी जिंदगी से नवाज़ दिया था. उसे याद आता है कि कैसे उसने बहुत हिम्मत जुटाकर कांपती सी आवाज़ में कुसुम से कहा था कि "मैं अपनी पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ गुजारना चाहता हूँ इसमें तुम्हें कोई ऐतराज़ तो नहीं". उसे यह भी याद आता है कि किस तरह उसका दिल बहुत ज़ोरों से धड़क रहा था और उसे लग रहा था कि कुसुम के साथ उसका वह मुस्कराहट का रिश्ता, जिसने उसकी कोमा में पड़ी हुई जिंदगी को अचानक जिंदगी से नवाज़ दिया था, वो उसके इस कदम से शायद अब ख़त्म हो जाएगा. कुसुम शायद उससे अब हैलो भी नहीं करेगी. और हैलो तो क्या उसकी तरफ देखेगी भी नहीं और अगर ऐसा हुआ तो.. तो..वो जियेगा कैसे....उसकी जिंदगी फिर किसी अँधेरी खोह में गुल हो जायेगी......नहीईई..पर ऐसा हुआ नहीं. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसका उसे डर था. उसे याद आता है कि कैसे उसकी बात सुनकर कुसुम ने आश्चर्य से उसकी ऑर देखा था ऑर मुस्कुराकर कहा था नहीं. मुझे कोई ऐतराज़ नहीं.
स्मृतियाँ क्या कमाल की चीज़ होती हैं. अतीत को ऐसे सजीव बना देती हैं जैसे आज, अभी, बिल्कुल हाल की ही बात हो शरद की अदृश्य पटल पर टिकी दृष्टि से टपकी हुई एक बूँद मुस्कान इसका प्रमाण थी जो उसके चेहरे पर अचानक से चमक उठी थी.
आह उस वक्त उसे ऐसा लगा था जैसे एक ही छलांग में वो आकाश के सारे सितारे तोड लेगा. कितना ख़ास था वह दिन. उसके चहरे की ख़ुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. उसकी और कुसुम की चुपचाप सी, खूबसूरत सी जिंदगी में संवादों का एक नया अध्याय जो जुड़ गया था. जिंदगी की फिर से एक नई शुरुआत हो गई थी. जिंदगी में से निकलती एक सतरंगी. एक इन्द्रधनुषी किर्णीली जिंदगी जिसके हर स्पर्श में हर रंग में वह खो जाना चाहता था.
चित्रपट की रील एक बार फिर घिर्र से घूम जाती है और इस बार एक साथ कई सारे दृश्य दृष्टि के फ्रेम में फिट हो जाते हैं. सुबह से शाम शाम से रात रात से अगली सुबह तक के ऐसे अनगिनत दृश्य और यूँ ही लगातार...
वो छोटा सा दृश्य जिसमें मोबाइल के की-पैड पर थिरकती उसकी उँगलियाँ कुसुम और उसके मन के राग का अनुगमन कर रही थीं, अचानक सबसे बड़ा हो जाता है सारे दृश्य उस छोटे से दृश्य के पीछे छिप जाते हैं, धुंधले पड़ जाते हैं. और वह देखता है कि किस प्रकार उसके और कुसुम के होठों पर एक मुस्कराहट खिली है. कैसे दोनों ऐसी बातों पर भी हँस रहे हैं जिनके पीछे हंसी की कोई वजह ही नहीं. कैसे दोनों एक दूसरे का हाथ थामे घंटों पार्क में टहल रहे हैं. और इसी क्रम में वक्त बहा जा रहा है बहुत तेज़ी से. इतनी तेज़ी से कि वक्त की एक बूँद भी नहीं बाकी नहीं रह गई और दृश्य ख़त्म. बिना किसी पूर्व सूचना के दृश्य ख़त्म.
इस दृश्य की समाप्ति उसे जितना साल रही थी उतना ही शायद उस नए दृश्य की अनचाही उपस्थिति भी जिसमें वो सिसकता हुआ कैंसर हॉस्पिटल में खुद को कुसुम के सिरहाने बैठा हुआ पाता है. उसके आंसू पानी की तरह बह रहे हैं. वह बच्चों की तरह बिलख रहा है और कुसुम अपने सिरिंज लगे हाथ से उसके आंसू पोंछ रही है.. और....और बहुत दूर तक घिसटता ये शब्दहीन दृश्य उस दृश्य में गुल हो जाता है जहाँ सुलगती एक तेज़ आग में उसका अपना मन भी राख हो गया था और उसके साथ ही उसकी एक दृश्य जिंदगी भी.

बुधवार, 25 जुलाई 2012

इस बार खरगोश जीत गया  - मसऊद अख्तर 


 हर बार उसे अपने दादा पर बहुत गुस्सा आता था कि एक उनकी वजह से पूरी खरगोश जाति को अपमान और बदनामी का दाग़ झेलना पड़ा कि उनकी जिंदगी जिल्लत की जिंदगी बन कर रह गयी। उसने फैसला किया कि इस बार की दौड़ में वह हिस्सा लेगा और अपनी जाति पर से बदनामी के इस दाग़ को हमेशा के लिए साफ कर देगा। दादा अपने पोते के इस जज्बे को देखकर बहुत खुश हुए थे हालाँकि उनके जी के भीतर हार की बदनामी का वो दंश भी मौजूद था।
दौड़ शुरु हई। खरगोश ने कुलाँचैं भरी। ये जा..वो जा.. देखते ही देखते वो बहुत आगे निकल गया। उस पेड़ के पास जाकर जिधर उसके बाबा सो गये थे। वो वहाँ उसे हार के प्रतीक के रूप में याद करने लगा और रुक गया। उसके कई दोस्त वहाँ पहले ही आराम फरमा रहे थे वो पेड़ फलों से लदा पेड़ था। उसका भी दिल मसोस गया। अब हार का प्रतीक उसकी आँखो से धुमिल हो गया और उसकी जगह आराम परस्ती ने ले ली। उसने देखा कछुए का पीछे कहीं अता पता नहीं था। उस दिन बहुत गर्मी थी वह भी पेड़ के नीचे की घासों पर लेट गया। लेकिन इस बार उसने अपने दोस्तों को सचेत करते हुए आँखें मटकायीं। उसके दोस्त उसकी इस लड़ाई में एक साथ थे। कछुआ अकेला धीमे कदमों से पीछे आ रहा था। उसके पिता ने सिखाया था कि कर्म किये जा..फल की इच्छा मत कर।..चल अकेला चल अकेला जैसे गीत उसके पिता की जुबान पर थे। एक स्तर पर यह दौड खरगोश के दादा और कछुए के पिता के मध्य भी थी।
खरगोश सो चुका था। कछुआ उसके करीब से निकलते हुए पेड़ को पार कर गया। ये कछुआ शाकाहारी नहीं था इसलिए पेड़ के फल और ठंडी हवा उसे आकर्षित न कर सकी। उसके दोस्तों ने जब देखा की कछुआ फिर आगे निकल रहा है तो उसका रास्ता रोक लिया और उसे पकड़ कर उसी पेड़ से बाँध दियाजो पिछली दफ़ा कछुए की जीत का मुख्य किरदार बना था बाद में खरगोश की नींद खुली तो कछुए को बंधा पाया और अपने दोस्तों के साथ जी खोलकर हंसा और दौड को फिर से जारी किया और इस बार वो दौड जितने में सफल रहा।
(मसऊद अख्तर की कहानी का संपादित रूप) संपादक - तरुण

रविवार, 15 जुलाई 2012

एड हॉक इंटरव्यू

कमरे में घुसते ही एक अजीब सा सन्नाटा था। सामने बैठी मैडमें जिनके हाथ में एक एक पर्चा था आपस में खुसुरफुसुर में मगन थी। वह सकुचाती हुई भीतर घुसी। उसने सिर और आँखें नमस्ते के अंदाज़ में झुका दीं।
एड हॉक पैनल में नाम है तुम्हारा ? (उनमें से एक ने पूछा)
जी मैम। (उसने सहम कर जवाब दिया)

हाँ तो तुम्हारा पीएच.डी का काम किस विधा पर है।
मैम नैमिचंद्र जैन की रंग समीक्षा पर।

अच्छा तो बताओ भक्तिकाल के केंद्र में क्या है? (अब की बार कोने में बैठी उम्रदराज़ मैडम ने पर्चे पर नज़रे गड़ाते हुए पूछा)।
मैम भक्ति।
ओह।(मुँह बिचकाते हुए बराबर वाली मैडम ने यह भाव व्यक्त किया)

विपर्य किसे कहते है कहानी और उपन्यास में क्या अंतर है? (दूसरे कोने में बैठी मैडम ने तुरंत अगला सवाल दागा)
वह अपने बी.ए और एम.ए. के दिनों की स्मृतियों मे खो गई।

अगला सवाल पूछने के लिए दोनों किनारों की मैडमों ने बिल्कुल मध्य में बैठी मैडम की ओर देखा जो अपने मोबाइल पर नंबरों को रगड़ने में मगन थी।
ओह अच्छा ये बताओ भक्ति के ...( ये पूछ चुके है उनके बराबर में बैठी एक अन्य मैडम ने बीच में टोकते हुए कहा।)
ओह सॉरी हाँ तो आख्यानात्मक कविता और प्रगी...परगीता ...ये क्या लिखा है फोटोकॉपी वाले ने सही से प्रिंट नहीं किया।( प्रगीतात्मक। , एक अन्य मैडम ने कानों मे कहा) हाँ प्रगीतात्मक कविता किसे कहते है? (मैडम ने पर्चे को अजीब तरह से आँखों के करीब लाकर पूछा)
सॉरी मैम मुझे तो ये अवधारणा ही समझ नही आई। कविता तो कविता होती है उसे आख्यानात्मक और प्रगीतात्मक जैसे बोझिल शब्दों से जोड़ने की जरूरत ही क्या है?

ओह तो तुम क्लास में क्रांति करना चाहती हो। स्लैबस के खिलाफ बच्चों को खड़ा करना चाहती हो।
नहीं मैम मै तो। बस

नहीं नहीं बोलो
बाकि मैडमों ने ध्वनि मत में उस मैडम का साथ दिया।

अच्छा बताओं विरुद्धो का सामंजस्य किसकी रचना है?
उसे लगा कि उसका गला कोई दबा रहा है उसे उस कमरे में अजीब सी घुटन महसूस हुई। कमरे के सन्नाटे उसके कानों में चीखने लगे। उसने कानों पर दोनो हथेलियाँ कस लीं और उठने का प्रयास किया पर उसने पाया कि उसके नीचे पैर ही नहीं हैं।

शनिवार, 14 जुलाई 2012

... बदल गई हैं परिभाषाएँ - पूरन सिंह


  • पूरन सिंह ने हमें तकरीबन पाँच छः लघुकथाएँ मेल की थी इनमें एक को छोड़कर लगभग सभी दलित लघुकथाएँ थी। इससे पहले हमने आप के साथ उनकी लघुकथा 'भूत' साझा की थी अब उनकी एक और लघुकथा आपके सामने है। आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिए बहुत उपयोगी है सो उनमें कंजूसी न बरतें। लघुकथा समवाय एक खुला मंच है। यह सबके लिए खुला है। कृपया हमें अपनी लघुकथा मेल करें। मेल आई डी है -
    tarunguptadu@gmail.com
    shodharthidu@gmail.com
    Mob - 09013458181


    दिनेशा शुरू से ही बदमाश था। लेकिन वह कभी भी अपने अम्बेडकर नगर के लोगों से नहीं लड़ता-झगड़ता था। बड़ों को सम्मान देता और छोटों को प्यार।
    एक दिन कहीं से आ रहा था कि रास्ते में शक्तिपुरा के ठाकुर साहब ने उसे देखकर अपनी मूंछों पर तांव देना शुरू कर दिया था मानो कह रहे हो, कितने ही बड़े गुण्डे बन जाओ मेरा कुछ भी नहीं उखाड़ सकते।
    ठाकुर साहब को मूछों पर ताव देता देख दिनेशा बौखला गया था। बस दबोच लिया था ठाकुर साहब को उसने और उस्तरा से उनकी एक मूंछ काट ली थी। वह चाकू अपने साथ नहीं रखता था उस्तरा ही रखता था। उसका तर्क था चाकू से ज्यादा उस्तरा कारगर होता है। खैर जैसे ही ठाकुर साहब की मूंछ वाली बात शक्तिपुरा में पता लगी। आ गए ठाकुर अम्बेडकर नगर पर चढ़कर । दोनों तरफ से चलती गोलियां की आवाज से पूरा क्षेत्र थरथराने लगा था। बाद में पुलिस-थाना हुआ।
    अम्बेडकर नगर के सभी लोग अपने क्षेत्र से सुरक्षित सीट से जीते विधायक जी के पास पहुंच गए थे। सारी बात बतायी थी। विधायक जी गुर्राए थे, ‘‘दिनेशा और दिनेशा का साथ देने वाले आप सभी लोग दोषी हो। उल्टे काम करते हो फिर मेरे पास आते हो...............।’’
    अभी, विधायक जी बोल भी नहीं पाए थे कि दिनेशा धीरे से बोला था, ‘‘चचा, ये लोग तो हमेशा से ही उल्टे काम करते आए है उसका क्या................।
    ‘‘वे बड़े लोग हैं।’’ विधायक जी बोले थे।
    ‘‘नहीं...............अब परिभाषाएं बदल गई है।’’ राम रतन मास्टर जी ने दिनेशा की ओर लेते हुए कहा था और सभी अपने-अपने घरों को लौट आए थे। सभी ने दिनेशा का साथ दिया था। सुरक्षित सीट से जीते विधायक जी की बैठक, ठाकुरों और पुलिस के साथ चल रही थी।

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

लघु मेडिकल कथा (लमेक) - पंकज कुमार

ओह्ह्ह प्लीज़ मुझे नहीं लगवाना इंजेक्सन...प्लीज़ मेरी बात सुनो 
नहीं सिस्टर प्लीज़ मुझे tablet दे दो मै नहीं ले सकती इंजेक्सन
देखिये इशा मैडम अगर आप सुई नहीं लेंगी तो आपकी बीमारी ठीक नहीं हो पायेगी 
मुझे अपना काम करने दीजिये
उईइ माँ आह्ह्ह ओह्ह्ह...धीरे सिस्टर ओह्ह्ह
हो गया सिस्टर ?
हाँ आप रुई को दबा के रखिये
सामने वाले बेड पर बैठी एक 40 साल की महिला यह सब देख रही थी.
उसने पूछा की बेटी तुम क्या करती हो? और इतना क्यों घबराती हो दर्द से??
जिस तरह से हरेक दवाई की एक्सपायरी होती है ठीक उसी तरह से हमारे दुःख,तकलीफ और बीमारी
की भी एक्सपायरी होती है जिसका डेट हमें नहीं पता होता है..
इतने में सिस्टर उस महिला के पास आकर इन्जेक्सन लगाने के लिए हाथ से कपड़े हटाई
तो इशा फुट फुट कर रोना शुरू कर देती है क्योंकि इशा को उस महिला की बायीं छाती,
जिस पे उभार नहीं थे दिख जाती है..रोते रोते इशा ने पूछा तो पता चलता है की एक महीने पहले ही
ब्रेस्ट कैंसर की सर्जेरी हुई है और अब कुछ दिन के अंतराल पर हॉस्पिटल आना जाना होता है..

बुधवार, 11 जुलाई 2012

मियां कक्कन - विभा नायक

  • मियां कक्कन के बारे में बहुत सुना था. कस्बे के लोग बताते हैं कि किसी ज़माने में सूरज पश्चिम से निकलता था पर मियां कक्कन को ये गवारा न था कि सूरज पश्चिम से निकले आखिर उनकी माशुका का घर भी तो पश्चिम में ही पड़ता है. खुदा न खुआस्ता कभी सूरज और उनकी माशुका के नैन लड़ गए तो उनका क्या होगा. बैठे-बिठाये चप्पलें तोड़कर कमाई बदनामी बेकार न हो जायेगी. तो बस सूरज का रास्ता बदलवा दिया. कहने-सुनने वालों की तो बोलती ही बंद हो गई. मुंह खुला का खुला रह गया. ऊपर के दांत ऊपर और नीचे के दांत नीचे. सब इशारों-इशारों में एक दूसरे से पूछते कि लाहौल विला कुव्वत !! ये हुआ तो हुआ कैसे? न चूँ न चाएँ न ताली न धायँ ये गज़ब कैसे हो गया. पूरे क़स्बे में चुप्प सा हल्ला गुल्ला हो गया पर मियां कक्कन??.... मियां कक्कन ठहरे मियां कक्कन उन्हें कोई फरक नहीं पड़ा. फुसफुसाती कितनी ही हवाएं उनके कान के बगल से निकल जातीं पर मियां कक्कन उन हवाओं की बदगुमानी को नज़रंदाज़ करते हुए सुड़कदार अंदाज़ में चाय पीते और मूछों ही मूंछों में मुस्कराते. खुदा जाने कि उनकी इस बेपरवाही की राजदार ऐसी कौन सी बात थी जो उनकी मूंछों से निकलकर चाय की सुडकियों में तो गुल हो जाती पर बगल से गुजरने वाली हवा को भी उसका गुमां नहीं हो पाता.
    लोग कहते हैं कि अपनी ही दुनिया में मशगूल आज के मियां कक्कन जो इस छोटे से कसबे में झोपड़ी बनाकर रहते हैं, एक ज़माने में उनकी बात ही अलग थी. मथुरा के पास के ही किसी इलाके के खानदानी ज़मीदार थे हमारे मियां और ज़मींदार क्या पूरी नवाबी शान थी उनकी. बाप-दादों की बड़ी जायदाद के अकेले वारिस. ज़मीन-जायदाद, नौकर-चाकर, ऐशो-आराम और खानदानी इज्ज़त का नशीला रुतबा जो अब मियां की बस सतखिर्री मूंछों में ही चमकता है. न जाने कहाँ हवा हुआ. कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि मियां अपने ज़माने के बड़े दिलफेंक किस्म के आशिक थे. जहाँ भी नाज़नीन नज़रे-नगीच हुई नहीं कि मियां का दिल रुखसत और साथ ही दौलत भी. ऐशो-आराम भी. ज़मींदारी भी. शाम के वक्त चिलम का लम्बा कश भरते कुछ बुजुर्गों को यह भी कहते सुना है कि काके शाह मालिक उर्फ़ हमारे मियां कक्कन ज़मीदार तो थे पर जेहनी तौर पर एक बेहद भले और मासूम किस्म के इंसान भी थे. किसी दर्दमंद या ज़ईफ़ को देखा नहीं कि बस दौड़ पड़े उसकी मदद को. इनकी चौखट से कोई खाली हाथ नहीं जाता था. ब्याह भी हुआ था, बाल-बच्चे और सलीकेदार बेग़म क्या कुछ नहीं था इनकी गृहस्थी में पर नसीब का खेल कौन जानता है. मियां कक्कन एक खूबसूरत हूर की गिरफ्त में आ गए. अब हूरें इंसानों की तरह पांच तत्वों की पैदाइश तो होती नहीं हैं कि उनमें जज़्बात हों, बस क्या था अपने हुस्न का दीवाना बनाकर राख कर गई मियां कक्कन की जन्नत.
    क़स्बे की मिट्टी में रेत के जितने कण होंगे शायद उतनी ही अलग-अलग तरह की कहानियां मियां कक्कन को लेकर प्रचलित थीं. पर एक बात पर सबका यकीन था और वो ये कि साठे की उम्र पार करके भी मियां कक्कन बड़े पाठे हैं. दिल भी पूरी जवानी के साथ धड़कता है. तभी तो इस उम्र में भी इनकी एक खूबसूरत माशूका है. अब माशुका कौन है, कहाँ है, ये किसी को नहीं पता पर है ज़रूर और बेहद खूबसूरत है यह सबको पता है. भोला हलवाई जिसकी बनाई चाय को कुरान की आयत की तरह मियां अपने ज़ेहन में उतारते हैं, ने एक बार बताया था कि मियां की जेब में एक बार एक चूड़ी देखी गई थी. जेब से झांकती गोल गोल चूड़ी हो न हो इनकी माशूका की ही थी. भोला हलवाई की ही तरह दीनू महंत ने भी कक्कन मियां के कुरते की जेब से रंगीन रूमालों के झाँकने की बात कई बार बड़े गर्व से कुबुली थी. कसबे के आवारा लड़के भी बड़े चटकारे लेकर मियां कक्कन की मोहब्बत की ऐसी कई दास्ताने सुनातें हैं और कद्रदानों से वाहवाहियां बटोरते हैं पर एक बात जो हैरान करती है वो ये कि किसी की भी ज़ुबान या निगाहों में इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि वो मियां के सामने अपनी करामात दिखा सकें हालाँकि मियां कक्कन को इन दस्तानों से कोई फर्क नहीं पड़ता वो तो बस एक पक्के मुसलमान की तरह दिन में तीन बार भोला हलवाई की दुकान की चाय से गला तर्र करते हैं, दमड़ी थमाते हैं और निकल पड़ते हैं कसबे के पहाड़ी इलाके की तरफ किसी अज्ञात स्थान की ओर.
    ख़ैर कसबे के लोग भी आखिर कब तक अपने सवालों के जवाबों का इंतज़ार करते.इसलिए पहुँच गए मियां का पीछा करते-करते उसी अज्ञात स्थान पर जहाँ हमारे मियां कक्कन सर्दी-गर्मी, बरसात, आंधी, तूफ़ान की फ़िक्र किये बगैर जाया करते थे. पर ये क्या? खोदा पहाड़ निकली चुहिया भी नहीं! सोचा था कि........
    यहाँ तो खेल ही उल्टा पड़ गया क्या देखते हैं कि मियां कक्कन एक बहुत बड़ी हवेली के सामने के मैदान में करीब दर्ज़न भर बच्चों के साथ बच्चे बने हैं. उनके साथ दौड़ रहे हैं. उछल कूद रहे हैं. छोटी सी एक बच्ची तोतली ज़बान में कह रही है काका आप जो चूली लाये ते न तूलज बैय्या ने तोल दी. काका आप बैय्या ती पिट्टी पिट्टी लदाओ. और हमारे कक्कन मियां तुतला कर कह रहे थे, मुनिया तेले लिए ऑल चूली लाऊंगा. काका आज यहीं रुक जाओ न. ११-१२ साल की बच्ची ने काका का हाथ पकड़ते हुए कहा. इतने में बाकी बच्चे भी शोर मचाते हुए कहने लगे के काका रुक जाओ, काका रुक जाओ. पास कुछ लोग हाथ बांधे खड़े थे जिनमें से एक मियां के नज़दीक आकर बोला. साब आज बच्चों के साथ हवेली में ही रुक जाइए बच्चों की बड़ी इच्छा है. आप रुकेंगे तो आपकी ये हवेली भी धन्य हो जायेगी. पर मियां कक्कन सिर हिलाते हुए बोले- न सुखना न. अब हवेली बच्चों की है. अपनी तो बस वही झोपड़ी भली. अपनी माँ को सुखना वचन दिया था मैंने कि तेरी हवेली को खुशियों से भर दूंगा.तुझे पता है न सुखना कि मेरी माँ ने यशोदा बनकर मुझ जैसे बिन माँ-बाप की औलाद को अपनाया. जब माँ ने मुझे ये बताया तो दिल तो मेरा बहुत टूटा पर उस दिन मुझे घर का मतलब समझ आ गया. मैंने भी सोच लिया था कि अपनी शादी करके घर तो सभी बसाते हैं पर मैं अपने जैसे हर उस बच्चे को घर दूंगा जिसका अपना कोई नहीं है. . .....कहते-कहते कक्कन मियां अचानक रुक गए और बोले...क्या सुखना वही पुरानी बातें.. चल अब खेलने दे मुझे. अपने बच्चों के साथ.. कहते हुए कक्कन मियां ने अपने कुरते से अपनी पलके पोंछी और बच्चों के साथ फिर से मस्त हो गए.
    सुना है कि उसदिन दीनू महंत और भोला हलवाई जो कस्बे की ओर से मियां कक्कन का पीछा करते करते हवेली तक पहुंचे थे. कक्कन मियां और बच्चों के साथ रात की ब्यारी करके ही लौटे. पर दोनों की आँखों में ढेर भरे आंसू ज़रूर जमा थे. लोगों ने बहुत पूछा पर मुहं से कोई बात ही नहीं फूटी. शायद कक्कन मियां ने उन्हें कोई कई कसम दे दी थी. ख़ैर खुदा जाने क्या था पर कमाल की बात ये हुई कि भोला हलवाई ने पता नहीं क्यों कक्कन मियां से दमड़ी लेना बंद कर दिया और कक्कन मियां को अब वह काका कहने लगा है. और पक्के ब्राह्मणवादी दीनू महंत कक्कन मियां के पाँव छूने लगे हैं.इतना ही नहीं कसबे के आवारा लड़के जब कक्कन मियां को लेकर चटकारेदार बयानबाजियां करते हैं तो ये दोनों उन्हें अपनी अपनी बारी आँखों से बरज देते हैं और कई बार तो डांटकर या गालियाँ देकर भगा भी देते हैं. उधर मियां कक्कन पहले की ही तरह अपने में मस्त हैं लेकिन क़स्बा?? क़स्बा वाकई हैरान है.......

शनिवार, 7 जुलाई 2012

वैशाली अपनी नगरवधू का इंतज़ार नहीं करती - रवीश कुमार

  • लघुकथा समवाय के ब्लॉग पर रवीश कुमार की यह पहली लघुकथा है। जिसे वे लघु प्रेम कथा(लप्रेक) कहना ज्यादा पसंद करते हैं। जिसकी शुरुआत दरअसल फेसबुक पर ही पहले पहल हुई। अगर बहुत न माना जाए तो रवीश फेसबुक पर लप्रेक के संस्थापक हैं। जिनकी देखादेखी हम जैसों ने भी फेसबुक पर ही लघुकथा लिखने की कोशिश की, यह कोशिश ही वास्तव में  हमारे सामने इस ब्लॉग और लघुकथा समवाय के फेसबुक समूह के रूप में उपस्थित है। रवीश की यह लघुकथा हमें विनीत के सौजन्य से मिली, उन्होंने ही इसे फेसबुक के लघुकथा पेज पर चस्पा किया इसके लिए उनका साधुवाद। - तरुण (मॉडरेटर)
    सेक्टर फोर मार्केट का चौराहा तमाम झूठे वादों के उतरने चढ़ने का गवाह रहा है । हम भी एक दिन यहीं किसी होर्डिंग में टांग दिये जायेंगे । वैशाली अपनी नगरवधू का इंतज़ार नहीं करती । आम्रपाली नाम की इमारत बनाने वाले ने प्रॉपर्टी के सौदे में ख़ूब बनाए । नगरवधू अपने शहर को कंधे पे लादे उस वैशाली से इस वैशाली आ गई । वो अब कारपोरेशन के चुनाव में बब्बू सिंह की वधू बनकर वोट माँग रही है । और तुम क्या कर रहे हो ? मैं तो दर्ज कर रहा हूं । हमारे सपने ? नहीं जर्जर वैशाली को ।

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

खुरदरे इमोशन्स के बीच - विनीत कु्मार

  • ए रघु ! देख न मेरे ये जूते कैसे चमक गए. बिल्कुल नए जैसे. लग ही नहीं रहा ये चार साल पुराने जूते हैं. ऐम्बे लिक्विड तो सचमुच कमाल का है. अब मैं अपने सारे जूते इसी से धोया करुंगी. ओह रागिनी! तुमने इस सड़ियल से जूते पर इतनी मेहनत क्यों की ? तुमने तो इसे कब का छोड़ दिया था पहनना. फिर अब क्यों साफ कर दिया ? रघु,ये सड़ियल है. याद है, ये तुम्हारी पहली कमाई की निशानी है. उस दिन तुम्हें हिन्दी सेट्स बनाने के दस हजार रुपये मिले थे. मैं जॉगिंग के लिए कामचलाउ जूते लेना चाहती थी और कई बार तुम्हें मोनेस्ट्री जाने कहा था. तब तुम सेट्स पूरी होने के बाद जाने की बात करते थे और फिर जैसे ही पैसे आए, जबरदस्ती मुझे आदिदास के शोरुम ले गए थे और इसे खरीदा था. उस दिन तुम सचिन की तरह आदिदास की ब्रांडिंग कर रहे थे. पता है रघु. इसे मैं जब भी पहनती थी न, मेरी रफ्तार अपने आप बढ़ जाती थी. ह...ा हा. रफ्तार बढ़ जाती थी. रफ्तार तो इतनी बढ़ गई रागिनी कि देखते ही देखते तुम मुझसे मीलों दूर चली गई. रघु, तुमने कुछ कहा क्या ? नहीं रागिनी. मैंने कहां कुछ कहा. ओके. तो फिर आज शाम चलना न मेरे साथ. सोसाइटी के बार गेट पर जो भइया बैठते हैं न, उनसे इसके तलबे चिपकवा लेंगे. दस-बीस रुपये में अपना काम हो जाएगा.

    भइया, मेरे ये जूते चिपक जाएंगे ? हां मैंडमजी, चिपक क्यों नहीं जाएंगे ? तो फिर चिपका दो अच्छे से. रघु पास ही हाथ में जेब डालकर खड़ा हो गया था. रागिनी ने जल्द ही हाथ और जेब के बीच की खाली जगह में अपने हाथ डाल दिए थे. दोनों के बीच की हवा को रागिनी ने काफी कम कर दिया था. पब्लिक प्लेस में ऐसा करने से रघु अक्सर एम्बेरेस हो जाया करता है और रागिनी को ऐसा करने में मजा आता. ए रघु ! तुम मार्केट पर मेरे छूने भर से इतने शर्माने क्यों लग जाते हो ? ऐसे डरते हो कि जैसे मैं तुम्हारी रेप कर दूंगी. रागिनी ने इधर-उधर देखा और एक झटके में रघु को खींच लिया. ठीक से चिपकाना भइया जूते. ही ही ही ही. मैडमजी, ओइसही चिपकाएंगे, जैसे आप रघु भइया को. रागिनी, तुम भी न. एकदम से चीप हरकतें करने लग जाती हो.

    इ लीजिए मैडमजी. आपका जूता चिपककर रेड्डी. थैंक्स भइया. अच्छा ये तो बताओ, ये जूते फिर से उखड़ तो नहीं जाएंगे ? मैं तो इसे लेकर मोतिहारी चली जाउंगी और अगर उखड़ा तो फिर तुम तो आओगे नहीं मोतिहारी चिपकाने. मैडमजी. एगो बात पूछें ? आप जब इ जूता लिए थे हजार रुपया से उपर देकर तो सेल्समैने से इ पूछे थे कि एतना मंहगा जूता ले रहे हैं, उखड़ तो नहीं जाएगा? औ आप पन्द्रह ही रुपया में हमसे इ बात पूछ रहे हैं..रघु अंदर से खिसिया रहा था. रागिनी को इतनी बातें करने की जरुरत क्या थी ?...कोई बात नही्ं मैंडमजी, रघु भइया को बता दीजिएगा कि चिपका हुआ है कि मोतिहारी जाके उखड़ गया ? 

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

(लघु emotional कथा)


  • छोटू दो कप स्पेशल चाय देना ...
    अम्मा ये लो चाय पी लो ...
    ये मै रोज़ केशवपुरम के liabrary के बाहर कहते हुए सुनता..
    मेरा मन हुआ की आखिर कौन है जो रोज़ चाय पिलाती है अम्मा को वो भी library में?
    कुछ जानने और कुछ देखने की नियत से मै तेज़ी से बाहर निकला..देखा की एक अतिसुन्दर गोरी लड़की जो गुलाबी shirt और levis की जींस में बाहर बैठी चाय पी रही है दुसरे हाथ में पावरोटी और बुट्टर लिए..
    ...
    बोले जा रही थी की अम्मा तुम इतना काम मत किया करो..(बीच बीच में अम्मा के पसीने को पोछती) अम्मा भी साथ में पावरोटी और चाय पी रही थी...अम्मा के हाथ में कपड़े का एक मोटा gloves था.
    मै मन में अनेक प्रश्न लिए बापस अपनी सीट पे जाकर पढने लगा..आज सुबह मै library जल्दी गया उन प्रश्नों की खोज में की शायद मुझे कुछ पता चले..मैंने देखा की अम्मा सड़क पे मोटा gloves पहने झाड़ू लगा रही है..motorcycle पर बैठ कर मै सब देख रहा था..
    अचानक से मेरे कान में आवाज़ आई अम्मा ये लो चाय पी लो...

बुधवार, 4 जुलाई 2012

पब्लिक स्कूल कथा - आलोक झा


एक अध्यापिका नर्सरी कक्षा के बच्चों को पढ़ा रही थी । कोई तुमलोगों को कुछ पूछे और तुम्हें उसका उत्तर न मालूम हो तो तुम्हें कहना चाहिए ' सॉरी आई डु नोट नो' !
फिर उन्होंने डेमो के लिए राजू को खड़ा किया ।
अध्यापिका - भारत में गरीबों की संख्या कितनी है ?
राजू - सॉरी मैडम , आई डोन्ट नो !
अध्यापिका - राजू अभी तुम्हारे 'आई डोन्ट नो' बोलने का समय नहीं आया अभी तुम 'आई डु नोट नो' बोलो !

अब देखना है राजू के 'आई डोन्ट नो' बोलने का समय कब आता है !

सोमवार, 2 जुलाई 2012

भूत - पूरन सिंह


              बाबा बहुत मेहनत करते थे लेकिन जमींदार बेगार तो करवाता था, पैसे नहीं देता था। कभी-कभार दे दिए तो ठीक, नहीं तो नहीं। उन्हीं पैसों से किसी तरह गुजर होती थी।
       एक दिन दोपहर को मैंने मां से कहा, ‘‘बहुत भूख लगी है।’’
       मां कुछ नहीं बोली उसने मिट्टी के बरतन उलट कर दिखा दिए थे।
       मेरी भूख और तेज हो गई थी। भूख के तेज होते ही मस्तिष्क भी तेज हो गया था। पास ही श्मशान घाट था जहां बड़े .बडे लोग अपने बच्चों को भूत-प्रेत से बचाने के लिए नारियल, सूखा गोला पूरी-खीर कई बार मिष्ठान भी रख आते थे। यह सब काम दोपहर में होता था या फिर आधी रात को।
       मैं श्मशान घाट चल दिया था। संयोग से वहां खीर पूरी और सूखा गोला रखा था। गोले पर सिंदूर और रोली लगी थी। मैंने इधर-उधर देखा। कोई नहीं था। मैंने जल्दी-जल्दी आधी खीर पूरी खा ली थी और गोला झाड़ पोंछकर अपनी जेब में रख लिया। आधी खीर पूरी लेकर मैं घर आया था। मेरा चेहरा चमक रहा था।
       चमकते चेहरे को देखकर मां ने पूछा, ‘भूख से भी चेहरा चमकता है क्या। तू इतना खुश क्यों हैं?
       मैंने बची हुई आधी खीर-पूरी माँ के आगे कर दी थी। माँ  सब कुछ समझ गई थी। माँ की आंखें छलक गई थी और उसने मुझे अपने आँचल में छिपा लिया था मानो भूत से बचा रही हो कि उसके होंठ फड़फड़ाने लगे थे, ‘भूत, भूख से बड़ा थोड़े ही होता है।
       मैं कुछ नहीं समझा था। मैं मां के आंचल में और छिपता चला गया था।

रविवार, 1 जुलाई 2012

लघु कन्फ्यूजन कथा - पंकज कुमार

तुम खुद ही निम्बुज्ज़ सॉफ्टवेर डाउनलोड करके देख लो न मै झूठ नहीं बोल रहा पूजा. मै कल रात में ऑनलाइन नहीं था मेरा यकीन करो.
हाँ हाँ तुम सारे मर्द एक ही तरह के होते हो.सामने तो मीठी मीठी बात और पीठ पीछे लग गए दुसरे लड़कियों को रिझाने.
प्रतीक तुम ही बताओ की क्या एक लड़की के लिए ये ज्यादा जरुरी की वो अपने boyfriend को रात में ऑनलाइन रह कर chat करे तो प्यार बना रहेगा?
पूजा तुम बात को घुमा रही हो .तुम अगर मुझसे इतना ही प्यार करती हो तो कॉल कर सकती थी की इतनी रात को तुम कहाँ chat कर रहे हो? लडकों को blame करना बहुत आसान है पर क्या तुम कभी ये सोची हो की लड़के भी सच बोलते हैं?
देखो मै कुछ नहीं जानती मुझे ये बताओ की मै जब भी ऑनलाइन होती हूँ तो तुम्हारा status ऑनलाइन कैसे दिखाता है?
ओह्हो पूजा पूजा पूजा मै समझ गया की तुम्हें क्या confusion हुआ है.मुझे अपना सैमसंग वाला मोबाइल दो...
प्रतीक फुसफुसाते हुए मोबाइल में निम्बुज्ज़ सॉफ्टवेर डाउनलोड कर दिया..और अब पूजा का भी status ऑनलाइन दिखना शुरू हो गया..निम्बुज्ज़ सॉफ्टवेर ने एक प्यार को टूटने से बचा लिया...
फिर एक दिन... ओये पूजा ?पूजा? ओह्हो ये ऑनलाइन दिखा रहा है पर जवाब नहीं दे रही

शनिवार, 30 जून 2012


जातिय गाली - विक्रम कुमार

रात्री के दो बज रहे थे। दिल्ली के अनुसूचित जाति-जनजाति छात्रावास सहित आसपास का सारा वातावरण शात था। अचानक वातावरण की शांति को भंग करते हुए आवाज आई-
‘गार्ड साहब, गार्ड साहब गेट खोलिए। मिश्रा जी, मिश्रा जी गेट खोलिए।’
गेट रात्री के दस बजे तक गेट बंद हो जाने के कारण गार्ड साहब गहरी नींद में सो रहे थे। अचानक जगाए जाने के कारण गुस्से में सवाल पूछ बैठे - ‘‘ कहां से आ रहे हो ? ये समय है छात्रावास में आने का? क्या समझ रखा है छात्रावास को ? कल अधीक्षक से शिकायत करूंगा।’’ ठीक है, ठीक है कर देना शिकायत। अभी जल्दी से दरवाजा खोलो - एक छात्र बोला। गार्ड साहब कुढ़ते हुए दरवाजा खोलें और
धीमे स्वर मं फिर बोलें - ‘‘ साले चमार, पढ़ते-लिखते हैं नहीं और फ्री का छात्रावास कब्जा लेते हैं।’’
मित्र गार्ड द्वारा कहे वाक्य सुनकर चुपचाप हॉस्टल में चला गया। गार्ड दरवाजा बंद करने में व्यस्त हो गया। कुछ देर बाद सात लड़के गार्ड के पास आए और उन पर ताबड़तोड़ डण्डे बरसाने लगे। गार्ड चिल्लाता रहा और लड़के उन्हें पीटते रहें। शोर-शराबे से छात्रावास के सभी लड़के इक्टठा हो गए। पुलिस भी आ गई। गार्ड ने पुलिस से कहा - ‘ये लड़के रात मं चोरी करने जाते है और देर से लौटते हैं। दरवाजा जबरदस्ती खुलवाते हैं।’ पुलिस ने लड़कां से पूछा ‘क्यों मारे हो गार्ड को ?’ मारने वाले लड़के ने कहा -‘किस जाति के हैं आप ?’
पुलिस वाला गुस्से में आ गया और बोला -‘क्या बदतमीजी है, अभी डंडे लगाउॅंगा और चोरी के इल्जाम मं बंद कर दूंगा। सारी हेकड़ी निकल जाएगी।’
लड़के ने कहा - आपसे सिर्फ आपकी जाति के बारे में पूछा तो आप इतने क्रोधित हो गये। इसने तो मुझे मेरी पूरी जाति के लोगों को गाली दिया।तब भी मैं क्या इसकी आरती उतारता ?’

रविवार, 24 जून 2012

मुर्गी की टांग

नौसीखिए गुलशन ने आव देखा न ताव बस बाइक भगा दी और घर की तरफ दौड़ाई। उसके दिमाग से लाली की छवि एकदम से बदलकर मुर्गी की टाँग में समा गयी। घर आके उसने जल्दी से बाइक घर में घुसेड़ी और छत पर चला गया। मैं उसका जिग्री दोस्त हूँ ऐसा वो अक्सर कहता रहता। लेकिन ऐसे मौकों पर वो छत पर भाग जाता। लाली रामदीन टांक की एक लौती लड़की थी। जिसे इम्पैस करने के लिए वो भाई को दहेज में मिली नई नवेली बाइक जबरन दिखाने ले गया था। उसने मुझे ये बताया था पर उसके चेहरे का पसीना कुछ और बयाँ कर रहा था। क्या हुआ मैंने पूछा, कुछ नहीं उसने कहा और गली के छोर पर देखने लगा। ऐसा बदहवास मैंने उसे इससे पहले कभी नहीं देखा था। हमारा मोहल्ला उस वक्त बामन बनियों का मोहल्ला हुआ करता था और गुलशन को सामने के मोहल्ले की लाली पसंद आई थी वो मोहल्ला जहाँ न जाने के लिए हमारे घरवालों सख्त हिदायत दे रखी थी। पर ये लड़कपन का पहला प्यार था सुबह वह अपने मुर्गे-मु्र्गियों को दाना डालने के लिए बाहर निकलती थी यही वक्त चुना था उसने। मुझे पता था ये बवाल तो होना ही एक ना एक दिन। बामन का लड़का और चमारों की लड़की को ..। मोहल्ले की नाक नहीं कट जाएगी। गली के छोर से आवाजे आनी शुरु हुई। 
यही गली है चाचा..यही भागा था वो लोंडा। ढ़ँढो यहीं होगा। वो रा चाचा. वो रा. छत पे छुपे गुलशन पर उनमें से एक की नज़र पड़ी। गुलशन भागा। मुझे पता था लाली के चक्कर में ये तगड़ा फँसेगा एक दिन। पर नहीं पता था कि वो दिन इतनी जल्दी आ जाएगा। ये तो शर्मा का घर है। उस समय जीने का दरवाजा बाहर की ओर था खींच कर लाने में कोई तकलीफ नहीं हुई थी उन्हें। तबियत से धुलाई की गई थी। मैं अच्छी दोस्ती का फर्ज निभा दूर से देख भर रहा था ये सब। मैं भागा आंटी गुलशन को वो लोग पीट रहे हैं इतने में मोहल्ला इकट्टा हो गया। साले उसकी टाँग तोड़ के भाग आया। रुकता तब बताते। बात कुछ नहीं थी पर बहुत बड़ी थी। लाली का सुंदर चेहरा उसके चाचा के चाँटों ने धुमिल कर दिया था और उसकी जगह मुर्गी की टूटी टाँग घूम रही थी। उस दिन के बाद गुलशन कभी उस सड़क से नहीं गुजरा। उसने छत से देखा लाली का भाई दाँत में फँसा लैग पीस का कतरा निकालने में व्यस्त था। लाली नीचे माचिस की तीली खोजने गयी हुई थी। मैं दोस्त की पिटाई पर पहले खौफ़ में था पर अब अंदर ही अंदर हँस रहा था कि साले मुर्गी की टाँग टूटने पर तेरा मुँह सुजा दिया उन लोगों ने। अगर मैं बता दूँ कि तून लाली का मुँह चुमा हुआ है तो। मजा आ जाएगा। गुलशन ने उस दिन के बाद लाली के बारे में मुझसे कोई बात नहीं की। कॉलेज में आकर एक दोस्त ने कहा कि लड़कपन का प्यार भी कोई प्यार होता है। हा हा हा

लप्रैक ऑन द गैंग ऑफ बासेपुर - विनीत कु्मार

छोड़ दो न रागिनी. इसके लिए प्लैटिनम टिकट लेने की क्या जरुरत है? फिल्म में तो ऐसा कुछ है भी नहीं कि इस सीट की जरुरत होगी. दो-चार ही तो ऐसी सीन है, स्कीप कर जाएंगे. उसके लिए 140 रुपये ज्यादा देने की क्या जरुरत है ? ओह कम ऑन रघु. लोग बता रहे हैं कि अनुराग की देवडी में हीरोईन गद्दा लेकर खेत जाती है, इसे देखने के लिए घर से गद्दा लेकर जाना होगा और तुम्हें प्लेटिनम टिकट में ही दिक्कत हो रही है..बकवास करते हैं सब. अच्छा सुनो, जब गद्दा ही लेकर..तो छोड़ देते हैं न ये फिल्म..मेरा मतलब है घर पर ही रहते हैं..हां,हां खूब समझती हो तुम्हारा घर पर रहना. लेकिन क्या पता, तुम्हारे साथ में दिल्ली में मेरी ये आखिरी फिल्म हो..मोतिहारी में हम थोड़े ही न जाएंगे सिनेमा..सीट पर तो बैठ जाएंगे पर हाथ कहां रखेंगे रघु ? लेकिन मैं तुमसे नाराज हूं रागिनी. तुमने इस फिल्म को देखने से पहले ही डिमीन कर दिया. क्या सिर्फ यही है सिनेमा में ? सत्ता के भीतर की बनती नाजायज सत्ता का जिक्र नहीं है..पीयूष मिश्रा, स्नेहा खानवलकर के संगीत को ऐसे देखोगी सिर्फ गद्द तक समेटकर ? तब तो बहसतलब में वरुण की बात से बहुत एम्प्रेस हो गई थी और आज सिर्फ गद्दा.. छीः, आज मुझे अफसोस हो रहा है ये कहने में कि तुम वह लड़की हो जिसके साथ हमने गॉडफादर,सत्या, एनॉनिमस देखी..सुबह तुमने खराब कर दी रागिनी तुमने..ओह रघु,मैं डिमीन नहीं कर रही. मैंने तो ऐसा इसलिए कहा कि तुम थोड़े एक्साइटेड हो, पैम्प करने के लिए बस. अनुराग और उसके काम को मैं बिग सेंस में देखती हूं और इस फिल्म को भी,डॉन्ट वी पैनिक प्लीज..अनुराग ने ये फिल्म हम कपल के बीच दरार पैदा करने के लिए थोड़े ही न बनायी है ?ऐ रघु, एक बार देखो न मेरी तरफ, अपनी वूमनिया की तरफ..तुम फील करो न कि तुम्हारी रागिनी मोतिहारी से विदा होकर सीवान जाएगी तो कैसी दिखेगी ? अलगनी पर टंगे मानपुर,गया के गमछे से पल्लू बनाकर किनारे को बीच की दांत से दबा लिए..

बुधवार, 20 जून 2012

लप्रेक,विद हैप्पी एंडिंग


चायवाले ने उनसे बिना पूछे ही कांच के गिलास में दो चाय बढ़ा दिए थे.अरे नहीं माधो, रागिनी अब अफसर बन गयी है,आज सीसीडी में कॉफी पिलाएगी कॉफी. तू आज रहने दे. माधो को 12 रुपये की बिक्री की चिंता नहीं थी..हुलसकर कहा. अच्छा माने इहौ अफसर बिटिया. वाह भइया, हमरा चाय पीके मैडमजी अफसर बन गई है, इससे खुश की बात औ क्या हो सकता है..अच्छा तो है, एक-एक करके सब हमरी चाय पीके धीरे-धीरे सीसीडी में घुस जाते हैं. औ तुमरा क्या हुआ भइया, तुम कब घुसोगो सीसीडी में ? रागिनी के यूपीएससी क्वालिफाई होने की खुशी के बीच माधो का ये सवाल इतनी तेजी से घुलकर उदासी में तब्दील हो जाएगी,रघु इसके लिए तैयार न था..रागिनी माहौल को हल्का करना चाहती थी. अरे माधो भइया, आज तुम भी चलो न हमारे साथ सीसीडी. हम..धत्त मैडम. हम आपदोनों के बीच जाकर क्या करेंगे,उहां आप जाइए,आराम से सोफा में धसिए औ रघु भइया से पूछ-पूछके शक्कर डालिए औ काफी बनाइए..तो तुम यहां क्या करते थे हमारे बीच ? हियां ? हियां चाय ढारते थे औ रघु भइया और आपकी आंखों के बीच की आवाजाही देखते थे..पवन चक्की जैसी फुक्क-फुक्क आती-जाती नजरें, सैइकिल जैसी टकरातें नजरे देखते थे और भीतरे-भीतर आशीष देते थे कि दुनहुं का एके साथ कुछ हो जाए. ओह माधो भइया,कमऑन..अब तुम भी कविया गए. काहे, पिछला चार महीना से रेनु,निराला,शमशेर का खिस्सा-चर्चा करके हमरा भेजा निचोड़ती थी दुनहुं मिलके त उस समय नहीं समझ आता था कि माधो भइया को कुछ बुझाता है भी कि नहीं. हम तुमको बहुत मिस्स करेंगे माधो भइया. चलोगे हमारे साथ जहां पोस्टिंग होगी? हमको छोडिए रघु भइया को लेले जाइए. उ आपके बिना तैयारी करेंगे..हहरके मर जाएंगे इ मुकर्जीनगर के जंगला में.क्यों रघु,तुम क्यों चुप्प हो? कुछ नहीं रागिनी,सोच रहा था तुमने आज पहली बार मुझसे गिफ्ट मांगी है, क्या दूं ? अच्छा, तुम..तुम मुझे माधो भइया की इस दूकान का एक टुकड़ा दे दोगे, सरकारी क्वार्टर की ड्राइंगरुम में बहुत खूबसूरत लगेगी. है न. हमारे रोज मिलने की जमीन,सपने बुनने की जमीन और माधो भइया को पकाने की जमीन..